कोई कुर्बत में डूबा है, कोई चाहत में उलझा है।
खुदा तेरे जादू नगर में हंगामा ये कैसा है।
कुछ बोलते बुत देखे हैं,कुछ जुबान खामोश हैं।
शजर के कोरे फूल में अब दाग हलके -हलके हैं।
माकूल सी पूर्वा हवा का, एक झोंका कह रहा।
यह कौन सा रहबर था जाने, दूर होता ही रहा।
रौशनी की स्याह गलियाँ,शब् सी है बेदाग़ रंगत।
जिंदा लाशों के शहर में मुर्दा लोगों की ये उल्फत।
बोले कभी जो धड़कन,गुजरे कभी गर उस यकीन से ।
पूछ लेना नाम उसका,रहता है वो अब हर कहीं पे।
These blogs r fondest of my words, closest to my bosom, deeply enriched with the outcomes of an introspective sojourn.... The panoramic view of sinusoidal life and its adornments ....
Friday, August 29, 2008
Thursday, August 28, 2008
Nadir n Zenith......
नींदिया कबसे मुझसे रूठी,
अंखियों की अब प्यास है झूठी।
सावन नही न जेठ है इनमे,
क्यूँ तेरी मेरी उल्फत टूटी।
दिन गिनते , दिन कितने काटे,
बारिस बीती, सर्द थी रातें।
और सर्द सा था मेरा मन् ,
बर्फ बनी थी मेरी आहें ।
अल्लाह, दुहाई किसको बोलूँ,
किसको अपना मैं दिखलाऊं।
कहीं नही जो गा सकता मैं,
गीत तुम्हे वोह आज सुनाऊं।
कुछ कुछ एक सवेरा देखा,
तूफ़ान देखा, साहिल भी देखा।
दूर कहीं तुम तक ले जाती,
हाथों की यह जीवन रेखा।
अंखियों की अब प्यास है झूठी।
सावन नही न जेठ है इनमे,
क्यूँ तेरी मेरी उल्फत टूटी।
दिन गिनते , दिन कितने काटे,
बारिस बीती, सर्द थी रातें।
और सर्द सा था मेरा मन् ,
बर्फ बनी थी मेरी आहें ।
अल्लाह, दुहाई किसको बोलूँ,
किसको अपना मैं दिखलाऊं।
कहीं नही जो गा सकता मैं,
गीत तुम्हे वोह आज सुनाऊं।
कुछ कुछ एक सवेरा देखा,
तूफ़ान देखा, साहिल भी देखा।
दूर कहीं तुम तक ले जाती,
हाथों की यह जीवन रेखा।
Tuesday, August 26, 2008
Perceptions....
लोगों से सुन रहा हूँ, ख़ुद का सबब नही उन्हें।
अब ख़ुद से पूछता हूँ, लोगों का क्या करें।
हैरत सी यह कहानी, दिलचस्प दास्तान हैं।
खामोश सी जुबानी , हरक़त का इम्तेहान हैं।
क्यूँ सोचते हैं लोग, ख़ुद को बड़ा हसीन ।
मिटटी से ही तो बनती है,कोई भी नाजनीन।
गैरत गिरा के आँख का, आइना क्यूँ तकते हो।
फितरतें अपनी सजा कर, क्यूँ दूसरों पे हँसते हो।
वोह मसीहा ना सही, कातिल नही वो देव का।
कुफ्र उसको गर हुआ भी,ईमान है उसका देवता।
अब ख़ुद से पूछता हूँ, लोगों का क्या करें।
हैरत सी यह कहानी, दिलचस्प दास्तान हैं।
खामोश सी जुबानी , हरक़त का इम्तेहान हैं।
क्यूँ सोचते हैं लोग, ख़ुद को बड़ा हसीन ।
मिटटी से ही तो बनती है,कोई भी नाजनीन।
गैरत गिरा के आँख का, आइना क्यूँ तकते हो।
फितरतें अपनी सजा कर, क्यूँ दूसरों पे हँसते हो।
वोह मसीहा ना सही, कातिल नही वो देव का।
कुफ्र उसको गर हुआ भी,ईमान है उसका देवता।
Saturday, August 23, 2008
The angelic abattoir.....
कब से ढूंढता हूँ, दिल का सबब नजीर ।
मेरी बंद मुट्ठियों में होगी वही लकीर।
न जाने खोज की आवारगी कब हो कत्ल,
कब धुंआ सा जा बने, गुजरा हुआ वोह वस्ल।
बीमार सा लगता है, मौसम का अब ये हाल,
कमजोर कर रहा है ताकत का हर ख़याल।
जीना इसी का नाम है, जीवन ये बेमिसाल,
वो कत्ल करके चल दिए, गिनते हैं हम जमाल।
बंदगी की कब्र पे , जाने हो कितनी धूल,
जिंदगी का जो खुदा था, दे गया कुछ शूल।
मिटटी में,मिटटी हूँ बनता, मुझसे मेरा मैं निकालता,
कुछ रहा और सब निकल कर,आसमां के पार चलता।
मेरी बंद मुट्ठियों में होगी वही लकीर।
न जाने खोज की आवारगी कब हो कत्ल,
कब धुंआ सा जा बने, गुजरा हुआ वोह वस्ल।
बीमार सा लगता है, मौसम का अब ये हाल,
कमजोर कर रहा है ताकत का हर ख़याल।
जीना इसी का नाम है, जीवन ये बेमिसाल,
वो कत्ल करके चल दिए, गिनते हैं हम जमाल।
बंदगी की कब्र पे , जाने हो कितनी धूल,
जिंदगी का जो खुदा था, दे गया कुछ शूल।
मिटटी में,मिटटी हूँ बनता, मुझसे मेरा मैं निकालता,
कुछ रहा और सब निकल कर,आसमां के पार चलता।
Thursday, August 21, 2008
The past perfect....
पता नही क्या राज है , गुल-ऐ-गुलजार में गुम हो रहे,
उस दीदा-ऐ-रुखसार में, अब चश्म मद्धम हो रहे।
हकीक़तों से सामना होता रहा अक्सर मेरा,
क्यूँ ख्वाब की उस बानगी में फ़िर भी हम खोते रहे।
क्यूँ वक्त की पेशानियों से, कोई नाम मिटता ही नही,
क्यूँ इस तलक भी ख्वाब के, पैमाने कभी छलके नही।
क्यूँ आग बन कर रात आई,मुझसे मिलने को सही,
क्यूँ करवटों की आहटों से , आह निकली ही नही।
कारवाँ अच्छा बहुत था, पाँव ही थे थक रहे,
अब क्या कहें, चुप चाप बैठे,देख ख़ुद को हैं रहे।
उस दीदा-ऐ-रुखसार में, अब चश्म मद्धम हो रहे।
हकीक़तों से सामना होता रहा अक्सर मेरा,
क्यूँ ख्वाब की उस बानगी में फ़िर भी हम खोते रहे।
क्यूँ वक्त की पेशानियों से, कोई नाम मिटता ही नही,
क्यूँ इस तलक भी ख्वाब के, पैमाने कभी छलके नही।
क्यूँ आग बन कर रात आई,मुझसे मिलने को सही,
क्यूँ करवटों की आहटों से , आह निकली ही नही।
कारवाँ अच्छा बहुत था, पाँव ही थे थक रहे,
अब क्या कहें, चुप चाप बैठे,देख ख़ुद को हैं रहे।
Tuesday, August 19, 2008
To hypocrisy of lords of naive masses....
कुछ लोग भूखे हैं।
बीमार जिंदगी, दर्द दवा है ,
इस बीमारी से पार कहाँ है।
दहशत,वहशत और लालच ने
उनसे सब कुछ छीन लिया है।
कुछ लोग भूखे हैं।
स्वांग रचा कुछ लोक तंत्र का,
समता के अभिनव वसंत का।
अरमानो का बस खून हुआ है,
जाने कितना लहू बहा है।
कुछ लोग भूखे हैं।
छीन रोटियाँ हाथों की अब,
प्रगति का आह्वान हुआ है।
जाने क्यूँ इस लोकतंत्र में ,
सामंतों का विहान हुआ है।
कुछ लोग भूखे है।
बाँट समाज टुकड़े टुकड़े में,
राज किए सब जाते हैं।
बेबस कर ख़ुद से ही सब को,
मुक्ति मार्ग दिखलाते हैं।
कुछ लोग भूखे हैं.
बीमार जिंदगी, दर्द दवा है ,
इस बीमारी से पार कहाँ है।
दहशत,वहशत और लालच ने
उनसे सब कुछ छीन लिया है।
कुछ लोग भूखे हैं।
स्वांग रचा कुछ लोक तंत्र का,
समता के अभिनव वसंत का।
अरमानो का बस खून हुआ है,
जाने कितना लहू बहा है।
कुछ लोग भूखे हैं।
छीन रोटियाँ हाथों की अब,
प्रगति का आह्वान हुआ है।
जाने क्यूँ इस लोकतंत्र में ,
सामंतों का विहान हुआ है।
कुछ लोग भूखे है।
बाँट समाज टुकड़े टुकड़े में,
राज किए सब जाते हैं।
बेबस कर ख़ुद से ही सब को,
मुक्ति मार्ग दिखलाते हैं।
कुछ लोग भूखे हैं.
Wednesday, August 13, 2008
The Phoenix..........
अब ग़म किसका है , कुछ याद कहाँ ।
आंख में बरसो रही,गुम हुई कोई कजां।
शफक का आफताब , कहता है बेहिसाब।
जल जल के देखो, लिखता कोई किताब।
आज़माइश जुम्बिश की,अरसो चली जैसे।
आसिम भी पूछते हैं, बिस्मिल यहाँ कैसे।
हर रोज बिखरता हूँ, हर रात इत्तिहाद है।
बयान-ऐ-उजाड़ में अब भी,वही कायनात है।
असरार बेगाने हुए,खयालात अब असीर।
अंजाम-ऐ-रिहाई बख्श दो, ऐ मेरे फ़कीर।
आंख में बरसो रही,गुम हुई कोई कजां।
शफक का आफताब , कहता है बेहिसाब।
जल जल के देखो, लिखता कोई किताब।
आज़माइश जुम्बिश की,अरसो चली जैसे।
आसिम भी पूछते हैं, बिस्मिल यहाँ कैसे।
हर रोज बिखरता हूँ, हर रात इत्तिहाद है।
बयान-ऐ-उजाड़ में अब भी,वही कायनात है।
असरार बेगाने हुए,खयालात अब असीर।
अंजाम-ऐ-रिहाई बख्श दो, ऐ मेरे फ़कीर।
Friday, August 8, 2008
Obeisance to the Odyssey of life.....
रेत सी जिंदगी हो गोया , कसता चला गया फ़िर भी।
मुट्ठी खोली तो देखा, बच रही लकीरें हासिल सी।
वाकयों के नश्तर से ,आयतें दिल की लिख डाली।
मील के हर पत्थर से , हाल पूछा बन सवाली।
क्यूँ शाम अब भी खोयी ,क्यूँ राहतों की सेज खाली।
देखो समंदर गा रहा, कब से अकेला ही कव्वाली।
अब अब्र बरसेगा यहाँ भी,रोशन भी होंगे ये दयार।
सूरज इबादत का निकलता,कह रही कुछ है बयार।
मुट्ठी खोली तो देखा, बच रही लकीरें हासिल सी।
वाकयों के नश्तर से ,आयतें दिल की लिख डाली।
मील के हर पत्थर से , हाल पूछा बन सवाली।
क्यूँ शाम अब भी खोयी ,क्यूँ राहतों की सेज खाली।
देखो समंदर गा रहा, कब से अकेला ही कव्वाली।
अब अब्र बरसेगा यहाँ भी,रोशन भी होंगे ये दयार।
सूरज इबादत का निकलता,कह रही कुछ है बयार।
Tuesday, August 5, 2008
The unintended.......
बातों की सरहद पे उनके इरादे,
बेखबर से हमसे हुई वारदातें।
बोली शिकन की,घुटन के अल्फाज़,
जो जाना किए हमको,हुए क्यूँ नाराज।
अब सीरत हमारी, कर रही कुछ सवाल,
क्यूँ हमसे कोई रूठे, क्यूँ होवे बेहाल।
जो चाहा कभी ना, ना ख्वाबों में सोचा,
क्यूँ वैसे खड़े हो कुछ अनजाने बवाल।
लकीरों को तकता, और ख़ुद से हूँ कहता,
हो सके तोह समझना ना वैसी कोई बात।
जाने क्यूँ समझ के भी उलझे से साज़,
मरहूम से लगते हैं अब अपने अल्फाज़।
बेखबर से हमसे हुई वारदातें।
बोली शिकन की,घुटन के अल्फाज़,
जो जाना किए हमको,हुए क्यूँ नाराज।
अब सीरत हमारी, कर रही कुछ सवाल,
क्यूँ हमसे कोई रूठे, क्यूँ होवे बेहाल।
जो चाहा कभी ना, ना ख्वाबों में सोचा,
क्यूँ वैसे खड़े हो कुछ अनजाने बवाल।
लकीरों को तकता, और ख़ुद से हूँ कहता,
हो सके तोह समझना ना वैसी कोई बात।
जाने क्यूँ समझ के भी उलझे से साज़,
मरहूम से लगते हैं अब अपने अल्फाज़।
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