सागर सदृश जीवन में
उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की
जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों
कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है।
कितने मेरे थे, कितनों का मैं,
पर काल बिंदु से जीव शिला
को युग युग घिसते देख रहा हूँ
कुछ रह जाता, कुछ ले जाता है।
सृजन बिंदु को संचित करता
मानव मन कब रुक पाता है
पल एक प्रलय का आता देखो
कुछ ही रहता, सब ही जाता है।
सागर तट पर सिकता कण
की आकृतियों सा जीवन है यह
कौन यहां का होने आया है
क्या रहता, क्या खो जाता है?