तुम लड़ना जानते हो
क्या ?
क्या तुमने टूटे
तारों को कभी जोड़ा है,
क्या अपने अंतर का
भाव निचोड़ा है,
क्या घनघोर निःशब्द
वितानों में,
अस्तित्व, उम्मीदों, सपनो के शमशानों में,
तुमने अनहद सा राग
कोई छेड़ा है ?
तुमने कभी भय,
भ्रम की रेखा लांघी है,
असत्य, अन्याय के गति अवरोधक बने हो?
कभी पर्वताकार
अहंकारों से भिड़े हो,
या व्यवस्था के
लिजलिजे दलदल में
डूबते मुर्दों के
बीच जीवित बचे हो ?
क्या तुम्हारी रगों
में कभी उबाल आया है,
क्या कभी तुमने चुन
कर नुकसान उठाया है,
कोई दिन जिया है कभी
आखिरी सोच कर?
कभी भेड़ियों के
झुण्ड और झुण्ड के भेड़िये
की आँखों में तुमने
अपना डर बसाया है ?
तुम लड़ना जानते हो
क्या ?
-- देव --
No comments:
Post a Comment