नियति ने पूछा "कैसे हो तुम"? प्रत्युत्तर में मैं कुछ बोल नहीं पाया। कुछ रहस्य स्पष्ट हो चुके थे। बोलता भी क्या उसे जो प्रेम भी है और पाषाण भी, जो गणित भी है और साहित्य भी, जो दैव भी है और दानव भी, जो सबका है और किसी का नहीं। मेरे मौन में उसने अपना उत्तर ढूंढ लिया था।
वैसे वर्षों के चिंतन से ढूँढा तो उसे मैंने था। कितना कुछ बुनती है वह, रंग बिरंगा, सरद गरम, ऊंचा नीचा। और हर ऊंचाई पर हम आनंद और आह्लाद से अभिभूत और प्रत्येक पतन में अस्तित्व का संकट। झूला ही तो है, जीवन, समय और नियति। जो गति की समझ को स्थायी कर गया वह पार, और जो उलझा उसे फिर दूसरी बार।
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