Sunday, September 1, 2024

मेरी माँ

भोजन टेबल पर रखा जा चुका था। नजर उठा कर देखा तो माँ सामने खड़ी थी। सूती साड़ी में लिपटी वह सादगी की प्रतिमूर्ति, चेहरा सर्द बर्फ की तरह शांतभावहीन हो वह खड़ी देखने लगी, लगा कुछ कहना चाहती थी। संभवतः अंतर मन से कह रही थी, पर होठ सिले थे। मैंने बैठने का आग्रह किया, पर वह कर्मयोगी की भांति अपना कार्य कर चल दीं। भोजन अभी पूरा होने को ही था कि वह मेरी आदत के अनुरूप कुछ मीठी चीज और हाथ धुलाने को पानी लेकर आ गई। मैं मुस्कुराया, पर वह उसी तरह शांत और मौन। मैं हाथ धो रहा था तो लगा मां की आंखें मुझ में कुछ ढूंढ रही है, मेरे भीतर व कुछ खोज रही हैं। गहरी काली आंखें मुझे घूर रही हैं। मैंने पूछा क्या बात है मां तबीयत तो ठीक है? वह अपनी आंखें मेरी आंखों में डाल, मौन का एक विराट यक्ष प्रश्न छोड़ पानी का पात्र लिए चली गयीं।

मां पिछले 3 वर्षों से कैंसर से पीड़ित हैं। पिताजी ने उनके उपचार में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। तन मन धन सब कुछ, त्वदीयं वस्तु गोविन्दम, तुभ्यमेव समर्पयेत। प्राणपण से माँ की सेवा में लगे थे, पर माँ को यह सब अखरता था, फूटी आंखों नहीं सुहाता था। प्रतिदिन 1 किलो अनार का जूस निकाल कर पिताजी मां को देते। सब्जियां स्वयं काटते क्योंकि माँ को डॉक्टर ने कहा था कि कहीं कटने-फटने ना पावे। माँ एक महान पतिव्रता नारी ठहरी उन्हें यह सब दृश्य- परिस्थिति मृत्युतुल्य लगते। फिर भी कैंसर की मार झेलती माँ हर संभव परिवार की सुश्रुषा करती। पर दिन प्रतिदिन वह ढलती जा रही थीं, कुमुदिनी सा उनका चेहरा कैंसर के ताप से मुरझा रहा था। अंतर की पीड़ा की व्यथा को वह बाहर प्रगट नहीं होने देती थी, पर उनका प्रत्येक अंतर्द्वंद्व उनके 50 वर्ष के चेहरे की लकीरों से प्रतिबिंबित होता था।

श्रीमती जी......  कहां हैं आप? अरे इधर आइये, आज का अनार बाजार का चुनिंदा है, देखिए कितना रस निकला है। पिताजी ने जूस का गिलास दिखाते हुए मां से कहा। माँ ने उन्हें ऐसे देखा मानो बिजली गिर पड़े और प्रलय आ जाए। पिताजी ने कहा - आइये पी लीजिए। मां ने आज ग्लास उठाया और जूस ऐसे पी गयीं मानो महारुद्र कालकूट पी रहे हों। मां की आंखें और भी पथरा गई, निष्प्रभ भाव शून्य। प्रत्येक दिन की तरह उन्होंने आज थोड़ा सा जूस पिताजी से छिपाकर मुझे देने का भी यत्न ना किया। बिना कुछ कहे वह सीधी रसोई घर में चली गई। आज माँ की आंखें हृदय चीरे दे रही थीं। यह माँ की सामान्य आंखें नहीं थी, कहां है वह उनका चिर ममत्व, कहां है वह अपनी सेवा न कराने का जिरह। कैसे देखा माँ ने आज अपने परमपूज्य पति देव को। कुछ बात है।

छोटा भाई ट्यूशन से आते ही टीवी पर कुछ देखने लगा। मां रामचरितमानस का पाठ कर रही थी यही उनकी दिनचर्या का प्रमुख अंश है। यह क्या आज मां ने उसे टीवी देखने से मन नहीं किया। उसे उसकी लक्ष्य की गुरुता का भाननहीं कराया। वरन दोहा लगाकर चुपचाप रसोई घर से भोजन लाकर उसके सामने रख दिया।  भाई भोजन कर रहा था तो कुछ यूं देखती रही जैसे उसे भी कुछ कहना चाहती थी पर किसी ने कसम दे रखी हो। फिर वापस आकर रामचरितमानस का पाठ करने लगीं, सुंदरकांड का प्रसंग था: प्रबिसि नगर कीजे सब काजा, हृदय राखि कोशलपुर राजा। दीदी ने कॉलेज से आते ही बस्ता फेंका और अपना भोजन ले कर भाई के साथ टीवी देखने लगी। मां ने अपनी नाक पर आ गए चश्मे से आंखें ऊपर कर उसे देखा और अपना पाठ करती रहीं। थोड़ी ही देर हुई थी कि पिताजी दफ्तर से वापस आ गए।

प्रतिदिन की तरह हमारी सायंकालीन पारिवारिक गोष्टी जम गई। छोटा भाई और दीदी, पिताजी के पास चिपक गए। मैं बेंत की कुर्सी पर मां की गोद में सर रखकर लेट गया। सभी अपनी-अपनी बातें करने लगे। पर आज मां का हर दिन की अपेक्षा अत्यंत गंभीर थी, लगता था वह हमारे बीच उपस्थित ही नहीं थी। वह प्रश्न भरी दृष्टि से सभी को देख रही थी, हर दिन की तरह आज वह मेरे बाल भी नहीं सहला रही थी। आज एक अजीब सी जड़ता थी उसके मुख मंडल पर। हिमालय सा कठोर दिखता था उसका मुख, आंखें बिल्कुल निस्तेज, न जाने कि शून्य किस शून्य की खोज में डूबे हुए। मां को न जाने आज क्या हो गया था। माँ को देखकर लगता था कि किसी देवी की मंजुल प्रतिमा लगी हो, शांत और निरपेक्ष, जिसके हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठे हो और आंखें मानो यह कहती हों कि बेटा कुछ भी करो, मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। मैं तुम्हें कुछ ना कहूंगी, न रोकूंगी, न टोकूंगी, बस मेरी कोख का नाम ना हँसाना।

यकायक पिताजी की आवाज आई - पंडित जी। मैंने आंखें खोली तो अपने को बिस्तर में पाया। उठा तो याद आया कि आज 13 सितंबर को तो माँ को गए तीन दिन पूरे हो चुके हैं। माँ चल बबसीं, माँ का देहांत हो गया, मां अब नहीं रहीं। क्या सचमुच .... .... ?




Saturday, December 30, 2023

क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में

उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की

जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों

कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है।


कितने मेरे थे, कितनों का मैं,

पर काल बिंदु से जीव शिला

को युग युग घिसते देख रहा हूँ

कुछ रह जाता, कुछ ले जाता है।


सृजन बिंदु को संचित करता 

मानव मन कब रुक पाता है 

पल एक प्रलय का आता देखो 

कुछ ही रहता, सब ही जाता है। 


सागर तट पर सिकता कण 

की आकृतियों सा जीवन है यह 

कौन यहां का होने आया है 

क्या रहता, क्या खो जाता है? 





Friday, November 10, 2023

संधि काल

अलसाये प्रात में देखो 

प्राची क्या संदेशा लायी। 

शीत रात्रि का मिटा नहीं 

औ' रवि बांटता तरुणाई। 


संधि काल ऐसे ही होते, 

भूत भविष्य मिल रहे जैसे। 

वर्तमान उस पल का कहता, 

परिवर्तन ही जीवन जैसे।  


अभ्युदय एक सिंधु जैसा है, 

नित नित बिंदु भरा करते हैं। 

पल प्रतिपल की थाती ले कर, 

जीवन वृत्त बना करते हैं।



Tuesday, September 12, 2023

चिर प्रकाश

जिसने हारे ह्रदय बिंदु में 

कोई द्वंद्व सजग हो। 

जिसने मानस की वीथी में 

पाये आह्लाद सजल हो। 

जिसके अंतर में बहती हों

करुण पुण्य सलिलायें।


वह विराट जिसका धरती पर 

देन लेन चुकता हो। 

स्वयं सिद्धि में जीता हो, 

स्वयं सिद्ध मरता हो। 


जिसकी वाणी में सत्य लिपट 

गौरव अनुभव करता हो। 

जो कल्याण मन्त्र में झंकृत 

रागों को गाता हो। 


उस से पूछो इस जग में 

नवरस कैसे हम पाएं। 

कैसे जीवन के पक्षों में, 

हम चिर प्रकाश हो जाएँ।



Friday, September 8, 2023

निश्चय और नियति

निश्चिंत रहें। हमने जितना दैव अर्जित किया है, वह हमारे साथ ही रहेगा। शास्त्र कहते हैं कि कर्म किसी बछिया की तरह है जो असंख्य धेनुओं में भी अपनी माता को पहचान लेता है। तो जब तक कर्म का बंधन है, श्रेष्ठ कर्म श्रेयस्कर हैं। और जो बंधन मुक्त हैं, वह तो लीला पुरुषोत्तम के साक्षात स्वरुप हैं।

कर्म के बंधन में आनंद के मार्ग ढूंढना ही मुक्ति के सोपान हैं। निश्चय और नियति का निर्माण करता जीवन बह रहा है। जब बाधाओं को भी हम अपनेपन से सुलझाएंगे, प्रवाह सरल होता जाएगा। बढ़ते रहिये।




देखना

दृश्य जगत को हम सभी देखते हैं। परन्तु क्या हम विचार जगत को देख पाते हैं ? यदि हम विचार जगत को देख पाते हों तो क्या हम काल यात्रा में पुरुष और प्रकृति के तत्वोंसे सृजित अध्यायों को देख पाते हैं। और यदि काल यात्रा भी दिखती हो तो अनंत कितना दिखता है ?

वह कौन सी परिस्थितियां हैं जब हम विचलित होते हैं और दृष्टि के विभिन्न आयाम अवरुद्ध होते जाते हैं। यहां तक कि दृश्यमान जगत भी नहीं दिखता। विचलन की वह अवधि कैसे चेतना के विभिन्न स्तरों को जड़ कर देती है? कभी ऐसे विचलन के बीच क्या हम रुके हैं और हमने पुनः दृष्टि के आयामों का जागरण किया है ?
यदि हम देखना सीख लेंगे तो सब समझ भी जाएंगे।


योजक

अमंत्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम्‌ ।

अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः॥

एक योजक मधुमक्खी की तरह होता है। पता नहीं कितने पुष्पों का रस ले कर वह मधु बनाता है। बदले में पुष्पों को नव पल्लवन दे जाता है और संसार को न जाने कितने फल। समाज को योजक ढूंढने चाहिए, उनकी चेष्टा को बल देना चाहिए।
वैसे समाज में योजक लोगों की संख्या कम होती है। अधिकाँश को स्वयं की चिंता से निवृत्ति नहीं मिलती। क्या आपने अपने आस पास ऐसे योजकों को देखा है, जो बिना किसी अपेक्षा के आपको कल्याण के पथ पर अग्रसर कर जाते हैं और पुनः उसी मार्ग पर किसी अगले की खोज में बढ़ जाते हैं। क्या संत भी योजक हैं, या योजक भी संत?


मेरी माँ

भोजन टेबल पर रखा जा चुका था। नजर उठा कर देखा तो माँ सामने खड़ी थी। सूती साड़ी में लिपटी वह सादगी की प्रतिमूर्ति , चेहरा सर्द बर्फ की तरह शां...