अमंत्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम् ।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः॥
एक योजक मधुमक्खी की तरह होता है। पता नहीं कितने पुष्पों का रस ले कर वह मधु बनाता है। बदले में पुष्पों को नव पल्लवन दे जाता है और संसार को न जाने कितने फल। समाज को योजक ढूंढने चाहिए, उनकी चेष्टा को बल देना चाहिए।
वैसे
समाज में योजक लोगों की संख्या कम होती है। अधिकाँश को स्वयं की चिंता से निवृत्ति नहीं मिलती। क्या आपने अपने आस पास ऐसे योजकों को देखा है, जो बिना किसी अपेक्षा के आपको कल्याण के पथ पर अग्रसर कर जाते हैं और पुनः उसी मार्ग पर किसी अगले की खोज में बढ़ जाते हैं। क्या संत भी योजक हैं, या योजक भी संत?
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