अपनी जड़ों से कभी कटे हो ? कभी अपने घर से जान बूझ कर कहीं दूर निकल गए हो ? कभी ऐसा लगा है कि जो घर कभी तुम्हारे लिए स्वर्ग था, आज वहीं सपने में भी लौटना नहीं चाहोगे ? वही पर्व - त्यौहार, बंधु - बांधव, रीत - संस्कार जिनके लिए तुम जीते मरते थे, वह अब तुम्हें बेमानी लगते हैं।
ऐसा होता है, अक्सर होता है। भाई से भाई भी कटता है तो बहुत दूर तक एक दूसरे को नहीं देखते। लेकिन कहीं गहरे ह्रदय में, या आत्मा में, इस दूरी की टीस तो लगती ही है। संस्कृतियों की धाराओं से भी ऐसे ही बहुत लोग काट दिए जाते हैं। अपने मूल से अलग, अपनी जड़ों से दूर, उनकी बुद्धि-चेतना में अपने ही मूल से घृणा के विचित्र बीज पल्लवित किये जाते हैं।
एक समय जब वह पहले पहल कटते हैं, तो दुःख, पीड़ा और अवसाद झेलते हैं। फिर न जाने कौन सी प्रायोजित प्रक्रियाओं से वह गुजरते हैं कि वह कठोर हो जाते हैं, स्वप्न में भी मुड़ कर नहीं देखना चाहते। कभी राजनीति, समाज की चिंता, कभी लोक बहिष्कार का भय, कभी प्राणों का भय, कभी वर्तमान और अतीत के जोर से अस्तित्व का संकट। सब जानते हुए भी क्या कभी घर लौटना चाहिए !
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