Sunday, July 13, 2008

The scars of .........

टुकडों में जीने की ख्वाहिश नही अब.

बेरुखी तेरी, सही अब न जाती,
याद तेरी कहीं एक पल को न जाती.
रौशनी छ रही दीये से मगर,
जल रहा देखो कैसे कही कोई बाती.

चाहत का तूफ़ान, जो मेरे जिगर में,
एक लहर कोई उसकी तुम तक भी जाती.
तड़प के वोह किस्से न अब मैं सुनाता,
तुम्हारी खुशी ही है मुझको जो भाती।

हँसी तेरे होठों की देखो गजब है,
धब्बा बना उसपे मेरा जिकर है.
दीखता है तेरे पेशियों पे पसीना,
जब जब है छाया तुमपे मेरा असर है॥

No comments:

मेरी माँ

भोजन टेबल पर रखा जा चुका था। नजर उठा कर देखा तो माँ सामने खड़ी थी। सूती साड़ी में लिपटी वह सादगी की प्रतिमूर्ति , चेहरा सर्द बर्फ की तरह शां...