Monday, July 13, 2020

जीवन देखूं या जंगल ?

कितने हैं जिन्होंने नहीं काटे , सत्य और न्याय के मूक वृक्ष ? बारी बारी सबने लूटा, खूब समेटा पेड़ों की कीमत को ईंटों में बदला। मैं, जीवन के तीसरे पहर, जीवन देखूं या जंगल ?



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मेरी माँ

भोजन टेबल पर रखा जा चुका था। नजर उठा कर देखा तो माँ सामने खड़ी थी। सूती साड़ी में लिपटी वह सादगी की प्रतिमूर्ति , चेहरा सर्द बर्फ की तरह शां...