स्वप्न ही तो तुमसे मिलने के मार्ग हैं। तुम पदार्थ की सीमा के परे न जाने कब ऊर्जा बन गयी। तुम्हारे "तुम" का थोड़ा सा हिस्सा "मैं" आज भी तुम्हारी कमी को अपने जीवन के अंतराल में देखता हूँ। मैं सब कुछ जानता हूँ, समझता हूँ, फिर भी तुम्हारी स्मृतियों की पोटलियों को खोलने से घबराता हूँ। क्योंकि खुलने पर जो भावों का ज्वार निकलेगा उसमें मेरा "मैं" बह जाएगा।
कल तुम्हें स्वप्न में मिला था, बसंती रंग की सूती साड़ी, वह पुण्य दृष्टि और स्मित हास। बिलकुल वैसी ही भंगिमा जैसे तुम बचपन में जीवन के पाठ पढ़ाते बनाती थी। मेरे पास मौन प्रतीक्षा से इतर कुछ भी न था। मैं जानता था कि मेरी थोड़ी सी भी हलचल और तुम्हारा यह जीवंत चित्र कैसे और कहाँ ओझल हो जाएगा। हज़ारो प्रश्न होंगे, लेकिन उत्तर .......
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