Friday, July 27, 2018

अविरल,निश्छल,स्नेहिल स्वप्न सा ,
जीवन पथ यह प्राण  सेतु का।
कल कल बहते समय सिंधु पर ,
पथिक कहो तुमने क्या देखा ?

जगते -सोते और सदा सुषुप्त ,
तन्द्रा देखी , जागृति को देखा। 
आँख खोलते अलसाये जन ,
अलसाते से नायक देखा। 

कृषक, मेघ और धरती का ,
पुष्प पल्लवित आँगन देखा। 
और बाड का अँधेरे में ,
फसलों का चरना भी देखा। 

श्रम का सृजन तिरस्कृत होता,
बाजारों का सजना देखा। 
भाव , मूल्य और आदर्शों का,
बीच हाट में रोना देखा। 

सत्य सदा एकाकी ठहरा ,
और झूठ का मेला देखा। 
जीवन तेरे पग पग हमने ,
दिन दोपहरी अँधेरा देखा।  

क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...