Saturday, December 30, 2023

क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में

उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की

जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों

कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है।


कितने मेरे थे, कितनों का मैं,

पर काल बिंदु से जीव शिला

को युग युग घिसते देख रहा हूँ

कुछ रह जाता, कुछ ले जाता है।


सृजन बिंदु को संचित करता 

मानव मन कब रुक पाता है 

पल एक प्रलय का आता देखो 

कुछ ही रहता, सब ही जाता है। 


सागर तट पर सिकता कण 

की आकृतियों सा जीवन है यह 

कौन यहां का होने आया है 

क्या रहता, क्या खो जाता है? 





Friday, November 10, 2023

संधि काल

अलसाये प्रात में देखो 

प्राची क्या संदेशा लायी। 

शीत रात्रि का मिटा नहीं 

औ' रवि बांटता तरुणाई। 


संधि काल ऐसे ही होते, 

भूत भविष्य मिल रहे जैसे। 

वर्तमान उस पल का कहता, 

परिवर्तन ही जीवन जैसे।  


अभ्युदय एक सिंधु जैसा है, 

नित नित बिंदु भरा करते हैं। 

पल प्रतिपल की थाती ले कर, 

जीवन वृत्त बना करते हैं।



Tuesday, September 12, 2023

चिर प्रकाश

जिसने हारे ह्रदय बिंदु में 

कोई द्वंद्व सजग हो। 

जिसने मानस की वीथी में 

पाये आह्लाद सजल हो। 

जिसके अंतर में बहती हों

करुण पुण्य सलिलायें।


वह विराट जिसका धरती पर 

देन लेन चुकता हो। 

स्वयं सिद्धि में जीता हो, 

स्वयं सिद्ध मरता हो। 


जिसकी वाणी में सत्य लिपट 

गौरव अनुभव करता हो। 

जो कल्याण मन्त्र में झंकृत 

रागों को गाता हो। 


उस से पूछो इस जग में 

नवरस कैसे हम पाएं। 

कैसे जीवन के पक्षों में, 

हम चिर प्रकाश हो जाएँ।



Friday, September 8, 2023

निश्चय और नियति

निश्चिंत रहें। हमने जितना दैव अर्जित किया है, वह हमारे साथ ही रहेगा। शास्त्र कहते हैं कि कर्म किसी बछिया की तरह है जो असंख्य धेनुओं में भी अपनी माता को पहचान लेता है। तो जब तक कर्म का बंधन है, श्रेष्ठ कर्म श्रेयस्कर हैं। और जो बंधन मुक्त हैं, वह तो लीला पुरुषोत्तम के साक्षात स्वरुप हैं।

कर्म के बंधन में आनंद के मार्ग ढूंढना ही मुक्ति के सोपान हैं। निश्चय और नियति का निर्माण करता जीवन बह रहा है। जब बाधाओं को भी हम अपनेपन से सुलझाएंगे, प्रवाह सरल होता जाएगा। बढ़ते रहिये।




देखना

दृश्य जगत को हम सभी देखते हैं। परन्तु क्या हम विचार जगत को देख पाते हैं ? यदि हम विचार जगत को देख पाते हों तो क्या हम काल यात्रा में पुरुष और प्रकृति के तत्वोंसे सृजित अध्यायों को देख पाते हैं। और यदि काल यात्रा भी दिखती हो तो अनंत कितना दिखता है ?

वह कौन सी परिस्थितियां हैं जब हम विचलित होते हैं और दृष्टि के विभिन्न आयाम अवरुद्ध होते जाते हैं। यहां तक कि दृश्यमान जगत भी नहीं दिखता। विचलन की वह अवधि कैसे चेतना के विभिन्न स्तरों को जड़ कर देती है? कभी ऐसे विचलन के बीच क्या हम रुके हैं और हमने पुनः दृष्टि के आयामों का जागरण किया है ?
यदि हम देखना सीख लेंगे तो सब समझ भी जाएंगे।


योजक

अमंत्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम्‌ ।

अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः॥

एक योजक मधुमक्खी की तरह होता है। पता नहीं कितने पुष्पों का रस ले कर वह मधु बनाता है। बदले में पुष्पों को नव पल्लवन दे जाता है और संसार को न जाने कितने फल। समाज को योजक ढूंढने चाहिए, उनकी चेष्टा को बल देना चाहिए।
वैसे समाज में योजक लोगों की संख्या कम होती है। अधिकाँश को स्वयं की चिंता से निवृत्ति नहीं मिलती। क्या आपने अपने आस पास ऐसे योजकों को देखा है, जो बिना किसी अपेक्षा के आपको कल्याण के पथ पर अग्रसर कर जाते हैं और पुनः उसी मार्ग पर किसी अगले की खोज में बढ़ जाते हैं। क्या संत भी योजक हैं, या योजक भी संत?


घर लौटना

अपनी जड़ों से कभी कटे हो ? कभी अपने घर से जान बूझ कर कहीं दूर निकल गए हो ? कभी ऐसा लगा है कि जो घर कभी तुम्हारे लिए स्वर्ग था, आज वहीं सपने में भी लौटना नहीं चाहोगे ? वही पर्व - त्यौहार, बंधु - बांधव, रीत - संस्कार जिनके लिए तुम जीते मरते थे, वह अब तुम्हें बेमानी लगते हैं।

ऐसा होता है, अक्सर होता है। भाई से भाई भी कटता है तो बहुत दूर तक एक दूसरे को नहीं देखते। लेकिन कहीं गहरे ह्रदय में, या आत्मा में, इस दूरी की टीस तो लगती ही है। संस्कृतियों की धाराओं से भी ऐसे ही बहुत लोग काट दिए जाते हैं। अपने मूल से अलग, अपनी जड़ों से दूर, उनकी बुद्धि-चेतना में अपने ही मूल से घृणा के विचित्र बीज पल्लवित किये जाते हैं।
एक समय जब वह पहले पहल कटते हैं, तो दुःख, पीड़ा और अवसाद झेलते हैं। फिर न जाने कौन सी प्रायोजित प्रक्रियाओं से वह गुजरते हैं कि वह कठोर हो जाते हैं, स्वप्न में भी मुड़ कर नहीं देखना चाहते। कभी राजनीति, समाज की चिंता, कभी लोक बहिष्कार का भय, कभी प्राणों का भय, कभी वर्तमान और अतीत के जोर से अस्तित्व का संकट। सब जानते हुए भी क्या कभी घर लौटना चाहिए !

धर्म-अधर्म

जहां हृदय में धर्म निष्ठा है, वहां चरित्र में सुंदरता है। जब चरित्र में सुंदरता होती है, तो घर में सद्भाव रहता है। जब घर में सद्भाव होता है, तो राष्ट्र में व्यवस्था होती है। जब राष्ट्र में व्यवस्था होती है तो विश्व में शांति होती है। ऐसा मैंने नहीं स्व. अब्दुल कलाम ने कहा था।

विश्व शान्ति का मूल व्यक्तिगत धर्म निष्ठा दिखती है, वह धर्म जो नितांत निजी है, जिसे किसी अन्य के लिए समझना भी असंभव। कठिनाई यह है कि हृदयों में धर्म निष्ठा का सृजन कैसे हो? चेतना, प्रेरणा, प्रशिक्षण और प्रबोधन के साथ धर्म निष्ठा को पोषित करती व्यवस्थाएं भी सृजित होनी चाहिए। आदर्शों की भी सहज प्रचुरता रहे जो सुनिश्चित करें कि "महाजनो येन गतः स पन्थाः" के पथिक भ्रमित न हों।
व्यक्तिगत धर्म के बिंदु जब मिल कर विश्व धर्म के विराट को स्वरुप देते हैं। तब मानव युगानुकूल विधान, संविधान गढ़ता है और व्यवस्था की छाँव में युग को शान्ति का अवलेह देता हैं। किन्तु वहीं जब प्रत्येक बिंदु में ही अधर्म का विप्लव हो, तब विश्व में कैसी व्यवस्थाएं बनेंगी? और जैसे जैसे यह विप्लव और बढ़ेगा, दृश्य कैसे होंगे?


वह शून्य

एकटक देख रहा था मैं शून्य में। अजान, अचीन्हे, अनभिज्ञ दृश्य मानस पटल पर बन रहे थे। दृष्टि कुछ और देख रही थी और मष्तिष्क कुछ और। निर्णय कठिन हो रहा था। लोक और परलोक, माया और राम, धर्म और अधर्म, राग और विराग, सत्य और बंधन। इन सब के बीच खड़ा वह विराट शून्य, जिसमें सब समाहित है, जहां से समस्त सृजन है, जहां विहंगम विध्वंस भी।
शून्य से दूरी नापती दृष्टि मष्तिष्क को सब बता रही थी। सारे दोलन, सारे आंदोलन, चेतना, प्रयास, सफलता, विफलता सब सामने ही तो हैं। एक कथा चल रही है शून्य से शून्य की। मन मष्तिष्क के भी शुक्ल और कृष्ण पक्ष हैं, जीवन है मृत्यु है, और कहीं बीच में एक शून्य है, किसी आँख मिचौनी सा। जहां न दिन है न रात्रि, न शोक न हर्ष। वह शून्य !



दृष्टि

उस योगी को अब माया और जीव दोनों दिख रहे थे। किसी पात्र में पानी पर तेल की परत जैसे, पहले अधिकतर यह पात्र आंदोलित दिखता। परन्तु इस बार उसकी दृष्टि स्पष्ट थी, पात्र चाह कर भी आंदोलित नहीं हो पा रहा था। इतना स्पष्ट उसने पहली बार देखा था। ऐसा लगता था उसके ह्रदय को बीसियों तीरों ने बिंध दिया हो। फिर भी वह इस दृष्टि में आनंदित था, इस आनंद में कोई ओज नहीं था, कोई भार नहीं था, कोई प्रेरणा नहीं थी और कोई आह्लाद नहीं था। एक सपाट आनंद। तय करना कठिन था कि यह जागृति थी या सुषुप्ति। परन्तु इस स्थायी होती दृष्टि के साथ आगे की यात्रा रोचक होने वाली थी .......



Wednesday, August 30, 2023

नियति

नियति ने पूछा "कैसे हो तुम"? प्रत्युत्तर में मैं कुछ बोल नहीं पाया। कुछ रहस्य स्पष्ट हो चुके थे। बोलता भी क्या उसे जो प्रेम भी है और पाषाण भी, जो गणित भी है और साहित्य भी, जो दैव भी है और दानव भी, जो सबका है और किसी का नहीं। मेरे मौन में उसने अपना उत्तर ढूंढ लिया था। 

वैसे वर्षों के चिंतन से ढूँढा तो उसे मैंने था। कितना कुछ बुनती है वह, रंग बिरंगा, सरद गरम, ऊंचा नीचा। और हर ऊंचाई पर हम आनंद और आह्लाद से अभिभूत और प्रत्येक पतन में अस्तित्व का संकट। झूला ही तो है, जीवन, समय और नियति। जो गति की समझ को स्थायी कर गया वह पार, और जो उलझा उसे फिर दूसरी बार।




Friday, August 11, 2023

सत्य, सनातन लीला करने तब स्वयं चले

षड्यंत्रों के यंत्र मन्त्र में डूबी धरती जब,

त्राहि त्राहि हो पीड़ित सी सकुचाती है।

सहज, सरल, सापेक्ष सत्य की रक्षा को,

परम शक्ति जब चिंतित हो अकुलाती है।


दुष्ट, अधम और पापी जब मदमस्त हुए,

छोटे 2 इंद्र सभी, टूट बिखर निस्तेज हुए।

महासमर में पाप विहँसता, पुण्य तड़पता,

धर्म ध्वजा जब आहत, कुंठा में मौन हुए।


सत्य, सनातन लीला करने तब स्वयं चले,

ले रूप कृष्ण का लीलाधर तब स्वयं बढे।

अन्यायी को गति, भक्त को मुक्ति दिया,

जगत गुरु ने महि मंडल कल्याण किया।



Monday, August 7, 2023

जीवन छोटा, सन्देश बड़ा हूँ

अभिलाषा का बिंदु नहीं,

मैं जीवन का हस्ताक्षर हूँ। 

रूप रंग के कोलाहल में, 

जीवन का मैं संवाहक हूँ। 


उपासना की मौन प्रस्तुति, 

प्रेमी के अकथित उदगार। 

शोभा का श्रृंगार अलंकृत, 

संवेदना का मैं हूँ आभार।   


हर्ष विषाद से परे खड़ा हूँ,

जीवन छोटा, सन्देश बड़ा हूँ।




Sunday, August 6, 2023

मेरे मन के पोत

मेरे मन के पोत 

समय के सागर पर 

कभी मौन से बाते करते 

कभी शोर की चुप्पी सुनते।


गहन रात्रि में लुप्त 

दिवा में बढ़ता घटता 

किसी सांझ की परछाई सा 

मैं अपनी अनुभूति तकता।




Friday, July 28, 2023

महामानव

आपकी आतंरिक यात्रा से संसार को कोई सरोकार नहीं है। आप का सत्य क्या है, आपके आदर्श क्या हैं उस से भी बहुत अंतर नहीं पड़ता। संसार एक विविधा है, जिसमें व्यवहार के विविध शिष्टाचार हैं। व्यवहारिकता की कसौटियों पर आपकी उपयोगिता आपकी सांसारिक सफलता असफलता तय करेगी। 


और हाँ, आपके अंदर के "स्व" और "सत्य" आपके निजी विषय हैं। व्यवहारों की मरीचिका में अपने सत्य से समझौता किये बिना जो जी गया, वह महामानव।



Friday, July 21, 2023

अन्वेषण

एक सतत अन्वेषण 

तिल तिल जलते समय 

यज्ञ में वन वन फिरता जीवन। 


सोपान सजे हैं उन्मीलन के,

उनके अप्रतिम आकर्षण 

छोटा पडता जीवन।






Thursday, July 20, 2023

उडते रहो।

स्वामी जी कह रहे थे कि आत्मा, उस परमात्मा का अनंत प्रवाह है। उसमें जैसा अहम् जोड देंगे वैसा ही जीव तैयार हो जाएगा। और यह अहम् एक लंबे कर्म पथ की यात्रा का मोड है, जहां से चले थे वहीं लौटने की यात्रा का।


उडते रहो।




Sunday, July 16, 2023

सृजन का जलजात जीवन।

कीच से भी खींच पोषण, 

सहज, सौम्य स्वरुप जीवन।

नित्य गढ़ता पुष्प अभिनव, 

सृजन का जलजात जीवन। 


इंद्रधनुषी रंग ले कर, 

उत्सर्ग और आनंद ले कर। 

पल्लवन में प्राण भरता, 

सृजन का जलजात जीवन। 


बीच रह कर जंतुओं के, 

आकंठ डूब जल तंतुओं में। 

देखो सजाता अतुल अनुपम, 

सृजन का जलजात जीवन।  


ना हीं माँगा दीर्घ जीवन, 

ना कभी यह अजर यौवन। 

उत्सर्ग पथ का पथिक है यह, 

सृजन का जलजात जीवन।  




Saturday, July 15, 2023

उड़ान

तुम्हारा मन उडना जानता है,

उसके पंख अजर अमर हैं।
परिस्थितियों के आकाश में,
संकटों के किसी प्रवास में,
कभी लगे कि सब हो चुका
धीमे से मन के पंख खोलना,
कोई नया मार्ग निकल आएगा
अंधेरे को सूर्य निगल जाएगा।
जीवन फिर नये संदर्भ सजाएगा।
संभव हो तो कभी विचार करना,
तत्वों की चालों को गुनना समझना।
दिवा, रात्रि और धुंधलके रहेंगे,
पंखों की शक्ति को हर दिन कसेंगे।




किंकर्तव्यविमूढ!

किंकर्तव्यविमूढ!

उचित है रूकना, थोडा ठिठकना,
देखना, समझना, साहस बटोरना।
किंतु कब तक!
मोह के जालों के बंधन में उलझा,
उलझन के दलदल में गहरे उतरता।
सोचो!
कर्म और फल क्या तुमने बनाए,
सारे जीवन फल वांछित ही पाए?
बढ़ो!
अपनी जगह किसी दूसरे को देखो,
ठिठके भ्रमित को तुम क्या कहोगे !
बढना ही जीवन है, काल से सीखो
यश का समंदर है, उतरो या डूबो।



सत्य

     सोचता हूं कि वही लिखूं जो तुम्हें पसंद हो,

यह कौन सा सत्य है जो मैं लिखता रहता हूं
और दिन पर दिन तुम दूर हुए जाते हो।
वह संबंध ही क्या जो मीठी बातें बनाये नही
जो कानों में मिसरी से गीत गुनगुनाए नहीं।
सत्य तो चारों ओर अनायास बिखरा पडा है
जीवन में, मृत्यु में, हास में रूदन में।
वेद पुराण के पन्नों से ले कर रोटी के संघर्ष में
परंतु सत्य से कभी किसी का पेट नहीं भरता,
उल्टे, मन को जन्मों की भूख दे जाता है।
संसार में भूख है, प्यास है, जीतने की आस है
जीने दो, हंसने दो, मिलने दो, पाने दो, आने दो
अहम ही तो जीवन है, समर्पण सन्यास है।
लिख सको तो राग लिखो, प्रेम और अनुराग लिखो
निर्बल का करुण नहीं, शक्ति का श्रृंगार लिखो।
अस्फुट



किताबें और जीवन

सामाजिक जटिलताओं को क्या हम किसी किताब या कक्षा में पढ़ सकते हैं? अनेकों लोगों के असंख्य विचार व्यूह में प्रबंधन और नेतृत्व क्या अनुभव के बिना संभव है? क्या जिसने किताबें कम पढ़ी उसने जीवन को कम पढ़ा?

ऐसा लगता है, जीवन सबसे बड़ी किताब है। हर पन्ने के बाद एक और नया पन्ना, और सभी के लिए अलग अलग। क्या अनुभव बहुत बड़ी योग्यता है, यदि हाँ तो क्या उसे अकादमिक मान्यताओं की परिभाषा में व्यक्त करने का कोई परिमाण कहीं बना है?
फोटो: अज्ञात



नभ बरसे

आज नभ बरसे हैं आलि

तृषित तन मन कुछ भरा
कुछ कहीं संगीत बजता
श्रृंगारमय पुलकित धरा।
आज मन के कोर में
कोर के किसी छोर में
प्रत्याशा के स्त्रोत निःसृत
पथिक मन फिर चल पडा।





पथिक

गरजेंगी घटाटोप के अट्टहास बन,

उमडेंगी झंझा के चक्रवात बन।
नभ से तडित बन शक्तिपात होंगे,
ऋतुओं की सृष्टि में शीत ताप होंगे।
पथिक, तुम अनवरत अहर्निश चलना,
सागर की छोर पर किनारे भी होंगे।



तप

तप का सुफल ज्ञान है। लेकिन तप के फलस्वरूप ऐश्वर्य, शक्ति, सामर्थ्य भी साथ मिल ही जाते हैं। यहीं पर तपस्वी की परख भी होती है।

कई बार हम ज्ञान को छोड बाकी सब कुछ का वरण करते हैं और अपने तप के बदले भोग की कामना में उलझते हैं। तपस्वी को ज्ञान की अभीप्सा करनी चाहिए। भोगों को साध्य नहीं बनने देना चाहिए और ज्ञान हो जाने पर भी तप का मार्ग कभी छोड़ना नहीं चाहिए।
गुरूदेव।





प्रभाकर

कौन है जो उस दिशा में

सूर्य सा आलोक बन कर
पुण्य पथ के दिव्य रथ को
हांकता रहता निरंतर।
इस निशा से उस निशा तक
प्राण में उत्साह भर कर
गीत अधरों पर सृजन के
क्यों सजाता वह दिवाकर।
रुकता नहीं थकता नहीं
चिर निशा में दीप बन कर
दिवस को अस्तित्व देता
प्रमुद स्वर्णिम वह प्रभाकर।



आनंद

संसार में भी रहना है और ऊंचा वाला आनंद भी चाहिए। तो बंधु आनंद की खोज में जैसे जैसे अपने अंदर जाओगे वैसे वैसे तुम्हें सामाजिक जीवंतता के लिए अभिनय सीखना होगा। अंततः यह संसार एक प्रहसन ही तो है। आत्मा और अस्तित्व का, ध्यान रहे काल की यवनिका आत्मा और अस्तित्व के प्रत्येक परिहास को देखेगी। फिर भी धीरे धीरे एक दिन सब एक हो जाएगा। जो चलता है उसे चलने दो, यात्रा ही तो है।




प्रश्नोत्तर और स्वीकृति।

कई बार ऐसा लगता है कि हम जो कर रहे हैं, आखिर वह क्यों कर रहे हैं ? अधिकाँश सटीक उत्तर नहीं मिलता और कुछ समय बाद हम पहले से मिलता जुलता कुछ और भी कर रहे होते हैं।

एक आधे संत और आधे सांसारिक व्यक्ति ने कहा था। The keyword to divinity is often acceptance. और फिर हमें कितनी समझदारी से यह भी पता चल पाता है कि हम संसार में करने क्या आये हैं ?
प्रश्नोत्तर और स्वीकृति।



कृत्रिम बुद्धिमता

कई बार समझ नहीं आता कि लोगों की विशिष्ट होने की ललक सामान्य है या फिर उनका सामान्य हो जाना विशिष्ट है ! ऐसा लगता है विशिष्ट हो जाना सभी के लिए संभव है, कभी भाग्य से, कभी कर्म से, कभी मर्म से, वह भी नहीं तो शर्म से या फिर किसी मनोरंजन से। लेकिन क्या सामान्य हो जाना सभी के लिए संभव है।

मानव और उसकी व्यवस्था का प्रादुर्भाव एक नए पड़ाव पर नयी दौड़ की तैयारी में है। कृत्रिम बुद्धिमता, शीघ्र ही मानव की प्रमुख विशिष्टता "बुद्धिमता" को ही सामान्य कर देने वाली है। अच्छी, बुरी, टेढ़ी, तिरछी, कुटिल, सज्जन, रचनात्मक, प्रशासनिक, वक्ता, अधिवक्ता, शिक्षक सारी बुद्धिमता को जबरन सामान्य करती एक पद्धति।
श्रम के बाद बुद्धि की बारी आ चुकी है। क्या यह संभव है कि किसी दिन धन को सामान्य करता कोई नवाचार बाजार में आये, पुराने वाले यंत्र "संतोष" में मानव जाति की रूचि विशेष नहीं रह गयी है। तकनीक और दर्शन की यह जुगलबंदी रोचक है।





जेठ की दोपहरी

जेठ की दोपहरी में,

मैं ढूंढ रहा था समय के पदचिन्ह।
आज थके पाँव में जूते हैं,
सर पर टोपी और सजीली छतरी भी।
एक दिन वह भी थे,
खाली पाँव, भरा पूरा मन।
खाने, खेलने को जंगल
और सो जाने को पेड़ों की छाँव।



विश्वास

विश्वास एक अद्भुत शक्ति है। जो इस शक्ति को साध चुके हैं वही इसका आनंद जानते हैं। उन्हें जिन्हे विश्वास है कि हर अन्धकार के बाद उजाला है, जो यह जानते हैं कि संघर्ष विश्वास से जीते जाते हैं, जिन्हे अनुभव है कि चाहे त्याग हो या भोग दोनों विश्वास से ही संभव हैं।

महाभारत के उपरांत, विश्वास से पूर्ण ऋषि शौनक 88 हजार ऋषियों को भारत पुनर्निर्माण के लिए तैयार कर सकते हैं। विश्व विजय का विश्वास लिए यवनों के रथ को कोई विश्वासी चाणक्य भारत में धराशायी कर देता है। विश्वास से भरे आदि शंकर, वैचारिकता की सहस्त्र धारा में बंटे पूरे भारत को एक सूत्र में बाँध सकते हैं।
स्मरण रहे, आक्रांताओं ने भी विश्वास के प्रयोग से ही विरोधी विश्वासों के अधूरे प्रयोगकर्ताओं को विश्व भर में समतल किया है, लेकिन भारत में उन्हे वह सफलता पूरी नहीं मिली।
विश्व के संघर्षों, निर्माण, विध्वंस के मूल में विश्वास है। विश्वास का अधूरापन कहीं का नहीं रहने देगा। ध्यान रहे विध्वंसकर्ताओं को, भोगियों को, आक्रांताओं को विश्वास की शक्ति सहजता से मिलती है। चिंतकों, विचारकों, त्यागियों को ही इस मार्ग में अग्नि परीक्षाएं देनी होती हैं।





मानव वन

मानव निर्मित व्यवस्थाओं के अंदर स्थापित नियमों के साथ एक मानव वन भी होता है। शीर्षस्थ व्यक्ति भी यदि लम्बे समय तक केवल नियमों के बल पर चले तो उसे व्यवस्था के अन्य घटक पसंद नहीं करते। व्यवस्था के प्राणियों को नियमों के जाल में भी अपने रूचि के वैचारिक और भौतिक भोजन चाहिए। थोड़े समय का अवकास वह सह सकते हैं, परन्तु लम्बे समय तक बिलकुल नहीं। नियमों से चलने वाले व्यक्ति को यदि सफलता पूर्वक अपने काम करने है तो उसमें विलक्षण चातुर्य चाहिए।

कई बार तो कई दृढ निश्चयी, न्यायप्रिय, नियमनिष्ठ व्यक्ति भी व्यवस्था के प्राणियों की चौतरफा गुर्राहट से घबरा जाते हैं और व्यक्तिगत शक्तियों का अवलम्बन लेते हैं। परन्तु कुछ नरश्रेष्ठ अपवाद भी होते हैं, जो पूरी व्यवस्था को बाँध कर स्थापित नियमों की पुनर्स्थापना करते हैं।



संवेदना के बीज

बचपन और किशोरावस्था में मिले अनुभव मष्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। अनुकूलन के बीज बोने का यह उचित समय होता है। हाँ, उर्वर मष्तिष्क उस बीज को कब तक पोषित करता है, अंततः वह व्यक्ति विशेष के चरित्र पर निर्भर करता है। फिर भी जो चिरंतनता के कृषक हैं वह तो अपना काम करेंगे।

बच्चों को पढ़ाते समय, प्राथमिक के शिक्षक "सुबोपलि" की पद्धति अपनाते हैं। अर्थात सुनो, बोलो, पढ़ो, लिखो। किशोरों के साथ सोच, शब्द और प्रयोग, मनसा-वाचा-कर्मणा उस विचार बीज का रोपण कर देते हैं। प्रयोग, उस विचार बीज का जीवन के साथ निषेचन हैं।
और जब ऐसे प्रयोगों के मूल में समानुभूति हो, संवेदना हो, सत्य हो तो ऐसे प्रयोग मील का पत्थर बन जाते हैं। आज ऐसे ही एक प्रयोग के शुभारम्भ का साक्षी बनने का अवसर मिला।
क्या संवेदना के यह बीज, कल के वृक्ष बनेंगे!



"तुम"

स्वप्न ही तो तुमसे मिलने के मार्ग हैं। तुम पदार्थ की सीमा के परे न जाने कब ऊर्जा बन गयी। तुम्हारे "तुम" का थोड़ा सा हिस्सा "मैं" आज भी तुम्हारी कमी को अपने जीवन के अंतराल में देखता हूँ। मैं सब कुछ जानता हूँ, समझता हूँ, फिर भी तुम्हारी स्मृतियों की पोटलियों को खोलने से घबराता हूँ। क्योंकि खुलने पर जो भावों का ज्वार निकलेगा उसमें मेरा "मैं" बह जाएगा।

कल तुम्हें स्वप्न में मिला था, बसंती रंग की सूती साड़ी, वह पुण्य दृष्टि और स्मित हास। बिलकुल वैसी ही भंगिमा जैसे तुम बचपन में जीवन के पाठ पढ़ाते बनाती थी। मेरे पास मौन प्रतीक्षा से इतर कुछ भी न था। मैं जानता था कि मेरी थोड़ी सी भी हलचल और तुम्हारा यह जीवंत चित्र कैसे और कहाँ ओझल हो जाएगा। हज़ारो प्रश्न होंगे, लेकिन उत्तर .......



आस्था को हिला दो

सारा खेल ही है, आस्था को हिला दो, व्यवस्था हिल जाएगी।

कम से कम हजार साल से भारत, सामरिक संघर्षों के साथ ही मनोवैज्ञानिक स्तर पर इन आक्रमणों को भी झेल रहा है। परंतु भारतीय मनीषा ने आस्था, विश्वास और व्यवस्था को अभ्युदय के इतने आयाम दिए हैं कि एकांगी एवं जड आस्था की आक्रामक लहरें आ आकर भी समय के साथ कुंद हुई हैं। फिर भी दीवार पर हजार चोटें तो लगी ही हैं।
अव्यवस्था फैलाने वाले हर शक्ति को निकट से निष्पक्षता से देखिए, कहीं न कहीं समावेशी आस्था के शत्रु भी दिख ही जाएंगे।



समाज, सरकार और बाजार

क्या सभ्यता की सततता के लिए हमें नयी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में अच्छे कार्यों को प्रोत्साहन की व्यापक पद्धति का सृजन करना चाहिए। अधिकतर लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्थाएं गलत का निषेध तथा नियमन तक स्वयं को सीमित करती हैं, वह शायद ही कहीं व्यक्ति और समाज को उत्तम कार्यों के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन का प्रबंध करती हैं।

बाजार भी व्यक्ति और समाज की योग्यता के निरपेक्ष मूल्यांकन तक स्वयं को रोक लेता है। व्यापारिक नियमों के आलोक में योग्यता, क्षमता और उपादेयता के गणित के परे बाजार बहुत अधिक सही गलत की परख नहीं करता। व्यवस्थाओं और समाज की सततता के लिए उसमें अध्यात्म का पुट होना कितना आवश्यक है यह समाज के निर्णय का विषय है।
समसामयिक विज्ञान एवं प्रबंधन भी व्यक्ति के बहुआयामी अभ्युदय को स्वीकार करता है। ऐसे में क्या समाज, सरकार और बाजार को भी इस अभ्युदय के लिए प्रासंगिक व्यवस्थाएं बनानी चाहिए ?



एक व्यक्ति

संसार में "एक व्यक्ति" की शक्ति असाधारण होती है। एक व्यक्ति अपनी लिप्सा, इच्छा, योजना, प्रेरणा, पराक्रम से संसार में न जाने क्या क्या कर जाता है। अच्छा - बुरा, सही - गलत, निर्माण - विध्वंस, अधिकाँश सबके मूल में एक व्यक्ति की ऊर्जा प्रभावी होती है। भोग के विभिन्न स्तरों पर व्यक्ति की ऊर्जा विभिन्न परिस्थितियां सृजित करती हैं। व्यक्तिवाद की इस प्रक्रिया को और लंबा चलाने के लिए, आभासी सामाजिकता का स्वरुप भी गढ़ा जाता है।

अपवाद स्वरुप कभी कभी कोई एक व्यक्ति ऐसा भी आता है जो सामाजिक अपेक्षाओं को अपने अंदर निहित कर, व्यक्तिवादी अश्वमेधों को रोक देता है। जो जन कल्याण और सर्वे भवन्तु सुखिनः का मार्ग चुन व्यक्तिवाद को लम्बे समय तक किंकर्तव्यविमूढ़ कर जाता है।
और यह चक्र रुकता नहीं। समाज, पंथ, राष्ट्र, व्यक्तित्वों के इन्ही कृष्ण और शुक्ल पक्षों में बनते बिगड़ते रहते हैं।





गुरु तत्व

राष्ट्र निर्माण का मौलिक घटक व्यक्ति है। व्यक्ति के निर्माण में शिक्षा, संस्कृति, मूल्यों और गुरु का बडा योगदान होता है।

गुरु की स्वायत्तता और मान्यता जैसे जैसे शिक्षण संस्थानों की तथाकथित स्वायत्तता में विलोपित होती गई, समाज की सामान्य दिशाहीनता बढी।
परिवारों के पास अब भी स्वायत्तता शेष है लेकिन क्या परिवारों में युगानुकूल व्यक्ति निर्माण हेतु गुरु तत्व शेष है ?



Logic and faith

Many times we see logic and faith on a collision course. Mostly in the observer's mind and contemporary reviews and texts.

As far as logic and faith are concerned, using a simplified process can help. There's no point carrying the internal prejudice towards logic or faith in life manifestations. To begin with, choose to accept the facts and knowledge which one finds logical. If one finds them useful and meaningful enough, then foray further with little faith and residual big logic to find more and more.
Perhaps that's Man's eternal quest. And the questions along this quest are best answered through experiences.





बुद्ध पूर्णिमा

2010 की बात रही होगी। हम, अटलांटिक मिराज नामक जहाज पर गैसोलीन ले कर जापान के चीबा नामक पत्तन में ढुलाई हेतु प्रवेश कर रहे थे। चीबा, टोक्यो और योकोहामा के निकट एक शहर है। प्रशांत महासागर के तट पर, विराट लहरों को देखता। शांत मौसम में भी प्रशांत महासागर से चलती बड़ी बड़ी महातरंगें इन क्षेत्रों में जहाज के संचालन को रोचक बनाती हैं।

पत्तन में जाने के लिए हमारे जहाज ने स्थानीय पायलट ले लिया था। कोई 68 वर्ष का बूढा कप्तान हमारे जहाज को टर्मिनल तक ले जाने के लिए सहयोग करने आया था। जहाज के मुख्य अधिकारी के रूप में मैं पायलट से तकनीकी संवाद निबटा चुका था। जापान में लोग अधिकाँश कार्यकुशलता के शिखर पर काम करते हैं। योजना एवं क्रियान्वयन का अद्भुत दृश्य वहाँ जीवन के सभी पहलुओं में देखा जा सकता है। हमारा बूढा पायलट भी अपवाद न था।
पायलट के सुझाव और जहाज के कप्तान के निर्देशानुसार हम पत्तन की ओर सुरक्षित बढ़ रहे थे। तभी पायलट पूछ बैठा, आप भारत से हैं ? मैंने हाँ में सर हिलाया। उसका अगला प्रश्न था "क्या आप बुद्ध गया जानते हैं" ? मैंने कहा जानता ही नहीं बल्कि मैं बोधगया कई बार गया भी हूँ। इतना सुनते ही वह बूढा पायलट भाव विभोर हो गया, उसकी आँखें डबडबा गयीं। रुंधे स्वर में उसने मुझसे कहा कि उसे मरने से पहले एक बार बुद्धगया जाना है।
हम सभी थोड़ी देर के लिए मौन हो गए। जहाज के रेडियो पर पोर्ट कण्ट्रोल कुछ निर्देश देने लगा। जहाज के आगे और पीछे टग बोट आ चुके थे। पायलट कुशलता से संयोजन करते हुए हमें जहाज को किनारे लाने में सहयोग कर रहा था।
मैं 2 सहस्त्राब्दी बाद भी बुद्ध, उनके विचारों और उनके प्रति समर्पण को एक दूर देश में पूरी तरुणाई में देख रहा था। स्तब्ध।
बुद्ध पूर्णिमा की शुभकामना।



बोझा

बोझा किसके सर पर नहीं है! अब तो व्यक्ति की पहचान उसका बोझा बन चुका है। कहीं अपेक्षा, कहीं अभिमान, कहीं गौरव तो कहीं पीडा।

कई बार तो बोझे के त्याग का बडा सा अदृश्य बोझ। कौन है वह जो उन्मुक्त है, सरल है, सहज है? जो आत्मा और संसार को एकात्म कर अपने मन के रथ का सारथी बन चुका है!



नवनिर्माण

महाभारत के बाद ऋषि शौनक 88 हजार ऋषियों के साथ नैमिषारण्य में भावी भारत की सामाजिक, आध्यात्मिक और शैक्षिक नीति बना रहे थे। बड़ा विनाश हुआ था, और भरपाई तो व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र निर्माण से ही संभव थी। 12 वर्षों की कठिन तपस्या के उपरान्त, ऋषि गण नया भारत बनाने देश के कोने कोने में चले गए।

पिछले कुछ सौ सालों में भी भारत की गहरी सामाजिक, आध्यात्मिक और शैक्षिक क्षति हुई है। भारत पुनः नवनिर्माण के ऋषियों की खोज में है। क्या आप व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए कुछ कर पा रहे हैं ?



आजीविका की अनिश्चितता

एक ओर जहां आजीविका की अनिश्चितता अनेक कष्टों का मूल है तो क्या आर्थिक प्रचुरता, आर्थिक स्वतंत्रता का पर्याय है?

भारत उत्सव और आनंद का देश रहा है। उत्सव और आनंद के मूल में धर्मनिष्ठ संतोष के साथ आर्थिक स्वतंत्रता की लंबे काल तक बडी भूमिका रही होगी! यदि भारत दरिद्र रहा होता, आर्थिक अंधकार में रहा होता तो अन्य सभ्यताओं की तरह उसने भी लूट को गौरवान्वित किया होता, न कि त्याग को।
समसामयिक भारत की बडी चुनौती एक सामान्य भारतीय की आर्थिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी प्रतीत होती है।
फोटो- अज्ञात



क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...