Saturday, May 22, 2021

मृत्यु

दशकों पहले की बात है। बचपन और युवावस्था के क्रम में प्रियजनों से बिछड़ने का एक विचित्र सा दौर देखा था। श्रद्धा का कोई पूर्व पुष्प मुरझाता उस से पहले समय नए पुष्पों के साथ खड़ा कर देता। वार्धक्य से ले कर रोग, यम अलग अलग रूप में आता, और किसी सत्यनिष्ठ विद्यार्थी जैसे परिवार की धुरी बन पिताजी परीक्षाएं देते जाते। पिता, तपस्वी की भांति, जीवन यज्ञ के सभी साथियों को एक एक कर तर्पण का मार्ग दिखाते। अनुचर और सहयोगी की भूमिका में हम, मौन संवाद करते उनके पीछे पीछे चलते।  


विषय यह नहीं कि "मृत्यु" क्यों ? वह तो प्रकृति का उत्सव है। कहते हैं कि जन्म के साथ ही व्यक्ति की विदाई भी तय रहती है। परन्तु उसी प्रकृति की माया में प्रेम भी तो है, बंधन भी हैं, सम्बन्ध हैं, स्मृतियाँ हैं। जीवन के अभिनय में प्रत्येक जीव विभिन्न आयामों में आनंद की खोज करता है, आनंद न सही तो कम से कम अपने हिस्से का आत्मसंतोष तो अवश्य खोजता है। परिजनों की मृत्यु के सम्बन्ध में यह आत्मसंतोष विशेष व्यक्तिगत आवश्यकता बन जाती है। दिवंगत होते आत्मा के प्रति प्रेम सिक्त स्वजन हर वह प्रयास कर लेना चाहता है जो उसकी क्षमता की सीमा में हो। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता, तो ग्लानि स्वरुप कुछ कुंठाएं घर कर जाती है। 


कोविड के दौर में जब चारों ओर देखता हूँ, सुनता हूँ, सोचता हूँ तो लगता है न जाने कितने लोग दिवंगत हो गए और कितने व्यथित स्वजन स्वयं से यक्ष युधिष्ठिर संवाद करते होंगे। भौतिकता, मानवता, आध्यात्मिकता के ना जाने कितने रहस्य चाहे अनचाहे उन्हें मृत्यु की नीरवता में झकझोर देते होंगे। कैसे वह हूक उठती होगी, व्यक्ति का परिस्थितियों के समक्ष लाघव कैसे चिढ़ाता होगा। और फिर समय का श्राप लिए, स्मृतियों के जाल सुलझाता जीवन मंथर गति से सतत आगे बढ़ जाता होगा।  


इस आत्मसंतोष और आत्मग्लानि से मुक्ति का उपाय क्या है, पता नहीं। परन्तु प्रस्थान की विभीषिका में अपने हिस्से की कर्मनिष्ठा और प्रायश्चित का बोध पूर्णतः निजी होता है। अलग अलग लोग अलग अलग विधि से इस निर्वात की वैतरणी को पार कर जीवन से पुनः एकाकार होते हैं। सूक्ष्म आत्मा और स्थूल शरीर के जाने के बाद, स्थूल और सूक्ष्म स्मृतियाँ दिवंगत को मन - मष्तिष्क से जाने नहीं देती। शुरू शुरू तो ऐसा लगता है मानो किसी निर्जन में धरती पर लेटे  आप आकाश को अपलक निहारते हों, और पूरे आकाशमण्डल के कोने कोने में वही दिवंगत स्वजन और उसकी लीलाएं आपको प्रतिपल दिखती हों। कोई भी दिशा हो, सर्वत्र वही स्वरुप। 


परन्तु समय और प्रकृति रुकते नहीं। समय और प्रकृति के शाश्वत चलायमान सन्दर्भ में बैठा जीव कैसे रुक सकता है। क्लांत मन मष्तिष्क जब टूट बिखरकर कर निद्रा की गोद में जाता है, तब न जाने प्रकृति किस तरह से उसकी चिकित्सा के अध्याय प्रारम्भ कर देती हैं। देखते ही देखते समय, सन्दर्भों की पटकथा को आगे लेता जाता है। स्थितियां बदलती हैं स्मृतियाँ बदलती हैं। पूरी तरह से मन मष्तिष्क पर आच्छादित स्मृति मंडल सिमट कर सिनेमा के परदे सा हो जाता है। विचारों और स्मृतियों में दिवंगत के इतर अन्य विषय और चिंताएं भी अपना स्थान बनाने लगती हैं। जब जब हम परदे की ओर देखते हैं तब उस व्यक्तित्व का अनवरत चित्र हमें दीखता है।  


दिवस और मास बीतते हैं। सन्दर्भों के फेर में अनेकानेक लोग आते जाते, संवादों के दौर, दायित्वों का चक्रव्यूह, प्रति दिवस निद्रा का अवलेह। गहरे कहीं कुछ भरता सा चला जाता है। दिवंगत की स्मृतियाँ मष्तिष्क में किसी स्लाइड शो जैसी आने जाने लगती हैं। जिनकी गति को मष्तिष्क का रसायन और भौतिकी अपने स्वेच्छानुसार नियंत्रित करती हैं। वर्ष दो वर्ष बीतते चलंत स्मृतियाँ, स्थिर छायाचित्रों सी हो चलती हैं। जिन्हे हम अपने तंत्रिकाओं में सन्देश के माध्यम से या कई बार अनजाने भी देखते - निहारते रहते हैं। दशकों के बाद कदाचित यही स्मृतियाँ आपके कंप्यूटर में किसी फोल्डर में रखे चित्र की भांति हो चलती हैं। जिन्हे आप अपनी प्रेरणा से क्लिक करते हैं, देखते हैं, निहारते हैं, कुछ समझते हैं, कुछ रो भी लेते हैं और फिर चुपके से क्लोज बटन दबा कर समय के झूले में बैठ जाते हैं।  


क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...