Tuesday, September 12, 2023

चिर प्रकाश

जिसने हारे ह्रदय बिंदु में 

कोई द्वंद्व सजग हो। 

जिसने मानस की वीथी में 

पाये आह्लाद सजल हो। 

जिसके अंतर में बहती हों

करुण पुण्य सलिलायें।


वह विराट जिसका धरती पर 

देन लेन चुकता हो। 

स्वयं सिद्धि में जीता हो, 

स्वयं सिद्ध मरता हो। 


जिसकी वाणी में सत्य लिपट 

गौरव अनुभव करता हो। 

जो कल्याण मन्त्र में झंकृत 

रागों को गाता हो। 


उस से पूछो इस जग में 

नवरस कैसे हम पाएं। 

कैसे जीवन के पक्षों में, 

हम चिर प्रकाश हो जाएँ।



Friday, September 8, 2023

निश्चय और नियति

निश्चिंत रहें। हमने जितना दैव अर्जित किया है, वह हमारे साथ ही रहेगा। शास्त्र कहते हैं कि कर्म किसी बछिया की तरह है जो असंख्य धेनुओं में भी अपनी माता को पहचान लेता है। तो जब तक कर्म का बंधन है, श्रेष्ठ कर्म श्रेयस्कर हैं। और जो बंधन मुक्त हैं, वह तो लीला पुरुषोत्तम के साक्षात स्वरुप हैं।

कर्म के बंधन में आनंद के मार्ग ढूंढना ही मुक्ति के सोपान हैं। निश्चय और नियति का निर्माण करता जीवन बह रहा है। जब बाधाओं को भी हम अपनेपन से सुलझाएंगे, प्रवाह सरल होता जाएगा। बढ़ते रहिये।




देखना

दृश्य जगत को हम सभी देखते हैं। परन्तु क्या हम विचार जगत को देख पाते हैं ? यदि हम विचार जगत को देख पाते हों तो क्या हम काल यात्रा में पुरुष और प्रकृति के तत्वोंसे सृजित अध्यायों को देख पाते हैं। और यदि काल यात्रा भी दिखती हो तो अनंत कितना दिखता है ?

वह कौन सी परिस्थितियां हैं जब हम विचलित होते हैं और दृष्टि के विभिन्न आयाम अवरुद्ध होते जाते हैं। यहां तक कि दृश्यमान जगत भी नहीं दिखता। विचलन की वह अवधि कैसे चेतना के विभिन्न स्तरों को जड़ कर देती है? कभी ऐसे विचलन के बीच क्या हम रुके हैं और हमने पुनः दृष्टि के आयामों का जागरण किया है ?
यदि हम देखना सीख लेंगे तो सब समझ भी जाएंगे।


योजक

अमंत्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम्‌ ।

अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः॥

एक योजक मधुमक्खी की तरह होता है। पता नहीं कितने पुष्पों का रस ले कर वह मधु बनाता है। बदले में पुष्पों को नव पल्लवन दे जाता है और संसार को न जाने कितने फल। समाज को योजक ढूंढने चाहिए, उनकी चेष्टा को बल देना चाहिए।
वैसे समाज में योजक लोगों की संख्या कम होती है। अधिकाँश को स्वयं की चिंता से निवृत्ति नहीं मिलती। क्या आपने अपने आस पास ऐसे योजकों को देखा है, जो बिना किसी अपेक्षा के आपको कल्याण के पथ पर अग्रसर कर जाते हैं और पुनः उसी मार्ग पर किसी अगले की खोज में बढ़ जाते हैं। क्या संत भी योजक हैं, या योजक भी संत?


घर लौटना

अपनी जड़ों से कभी कटे हो ? कभी अपने घर से जान बूझ कर कहीं दूर निकल गए हो ? कभी ऐसा लगा है कि जो घर कभी तुम्हारे लिए स्वर्ग था, आज वहीं सपने में भी लौटना नहीं चाहोगे ? वही पर्व - त्यौहार, बंधु - बांधव, रीत - संस्कार जिनके लिए तुम जीते मरते थे, वह अब तुम्हें बेमानी लगते हैं।

ऐसा होता है, अक्सर होता है। भाई से भाई भी कटता है तो बहुत दूर तक एक दूसरे को नहीं देखते। लेकिन कहीं गहरे ह्रदय में, या आत्मा में, इस दूरी की टीस तो लगती ही है। संस्कृतियों की धाराओं से भी ऐसे ही बहुत लोग काट दिए जाते हैं। अपने मूल से अलग, अपनी जड़ों से दूर, उनकी बुद्धि-चेतना में अपने ही मूल से घृणा के विचित्र बीज पल्लवित किये जाते हैं।
एक समय जब वह पहले पहल कटते हैं, तो दुःख, पीड़ा और अवसाद झेलते हैं। फिर न जाने कौन सी प्रायोजित प्रक्रियाओं से वह गुजरते हैं कि वह कठोर हो जाते हैं, स्वप्न में भी मुड़ कर नहीं देखना चाहते। कभी राजनीति, समाज की चिंता, कभी लोक बहिष्कार का भय, कभी प्राणों का भय, कभी वर्तमान और अतीत के जोर से अस्तित्व का संकट। सब जानते हुए भी क्या कभी घर लौटना चाहिए !

धर्म-अधर्म

जहां हृदय में धर्म निष्ठा है, वहां चरित्र में सुंदरता है। जब चरित्र में सुंदरता होती है, तो घर में सद्भाव रहता है। जब घर में सद्भाव होता है, तो राष्ट्र में व्यवस्था होती है। जब राष्ट्र में व्यवस्था होती है तो विश्व में शांति होती है। ऐसा मैंने नहीं स्व. अब्दुल कलाम ने कहा था।

विश्व शान्ति का मूल व्यक्तिगत धर्म निष्ठा दिखती है, वह धर्म जो नितांत निजी है, जिसे किसी अन्य के लिए समझना भी असंभव। कठिनाई यह है कि हृदयों में धर्म निष्ठा का सृजन कैसे हो? चेतना, प्रेरणा, प्रशिक्षण और प्रबोधन के साथ धर्म निष्ठा को पोषित करती व्यवस्थाएं भी सृजित होनी चाहिए। आदर्शों की भी सहज प्रचुरता रहे जो सुनिश्चित करें कि "महाजनो येन गतः स पन्थाः" के पथिक भ्रमित न हों।
व्यक्तिगत धर्म के बिंदु जब मिल कर विश्व धर्म के विराट को स्वरुप देते हैं। तब मानव युगानुकूल विधान, संविधान गढ़ता है और व्यवस्था की छाँव में युग को शान्ति का अवलेह देता हैं। किन्तु वहीं जब प्रत्येक बिंदु में ही अधर्म का विप्लव हो, तब विश्व में कैसी व्यवस्थाएं बनेंगी? और जैसे जैसे यह विप्लव और बढ़ेगा, दृश्य कैसे होंगे?


वह शून्य

एकटक देख रहा था मैं शून्य में। अजान, अचीन्हे, अनभिज्ञ दृश्य मानस पटल पर बन रहे थे। दृष्टि कुछ और देख रही थी और मष्तिष्क कुछ और। निर्णय कठिन हो रहा था। लोक और परलोक, माया और राम, धर्म और अधर्म, राग और विराग, सत्य और बंधन। इन सब के बीच खड़ा वह विराट शून्य, जिसमें सब समाहित है, जहां से समस्त सृजन है, जहां विहंगम विध्वंस भी।
शून्य से दूरी नापती दृष्टि मष्तिष्क को सब बता रही थी। सारे दोलन, सारे आंदोलन, चेतना, प्रयास, सफलता, विफलता सब सामने ही तो हैं। एक कथा चल रही है शून्य से शून्य की। मन मष्तिष्क के भी शुक्ल और कृष्ण पक्ष हैं, जीवन है मृत्यु है, और कहीं बीच में एक शून्य है, किसी आँख मिचौनी सा। जहां न दिन है न रात्रि, न शोक न हर्ष। वह शून्य !



दृष्टि

उस योगी को अब माया और जीव दोनों दिख रहे थे। किसी पात्र में पानी पर तेल की परत जैसे, पहले अधिकतर यह पात्र आंदोलित दिखता। परन्तु इस बार उसकी दृष्टि स्पष्ट थी, पात्र चाह कर भी आंदोलित नहीं हो पा रहा था। इतना स्पष्ट उसने पहली बार देखा था। ऐसा लगता था उसके ह्रदय को बीसियों तीरों ने बिंध दिया हो। फिर भी वह इस दृष्टि में आनंदित था, इस आनंद में कोई ओज नहीं था, कोई भार नहीं था, कोई प्रेरणा नहीं थी और कोई आह्लाद नहीं था। एक सपाट आनंद। तय करना कठिन था कि यह जागृति थी या सुषुप्ति। परन्तु इस स्थायी होती दृष्टि के साथ आगे की यात्रा रोचक होने वाली थी .......



क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...