Thursday, February 23, 2023

बिरहोर

आज बिरहोर समाज के साथ दिन बीता। अनेक बातें हुई। भोजन, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका, कौशल, अपेक्षा, क्षमता और भी बहुत कुछ। विश्वास करना कठिन है, लेकिन 300 - 400 रुपये प्रति सप्ताह की कमाई, वह भी प्लास्टिक बोरे के रेशों से रस्सियां बुन कर। पूँजी के नाम पर लगभग शून्य, यदि कुछ है भी तो वह भी शून्य सी अवस्था में। जन धन ने खाता खुलवा दिया है, कभी कभार कुछ आता है, कहाँ से उन्हें नहीं पता। डबल राशन मिलने से गदगद हैं।


इनके बच्चों को स्कूल ले जाने में कठिनाई आती है। घर पर माहौल नहीं मिलता। मास्टर साब यदि कुछ पूछ बैठे तो बच्चे मौन साध लेना उचित समझते हैं। बाकी समाज अभी भी मुख्यधारा में इन्हे नहीं गिनता। भारत सरकार ने इनकी जनजाति को "विशिष्टतः असुरक्षित जनजाति समूह" में रखा है। लेकिन जनजातीय अधिकारों के विमर्श में कभी इनकी जरूरतें बुलंद करने की गलती राजनीति भी नहीं करती है।

इनकी सरलता अद्भुत है, यह शिकायत भी नहीं करते। किसी नेता, किसी अधिकारी, किसी व्यवस्था को अपने स्थिति का जिम्मेदार नहीं बताते। एक अद्भुत वर्तमान में जीते हैं यह, अतीत और संभावनाओं से उन्मुक्त। दो साथी शायद हाल में ही किसी भट्ठे से काम कर के लौटे थे। दोनों के टी शर्ट की डिज़ाइन रोचक थी। उनके साथ एक फोटो खिचाने से खुद को रोक नहीं सका।



क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...