माँ ! उद्धार करो।
माता कल्याण करो, शक्ति, भक्ति, नव तेज, विश्व नवल, नव आशा, नव नव सब निर्माण करो। माता कल्याण करो। अंत करो आतंक, दुष्ट का निश्चय ही संहार करो। माता ! श्रांत, क्लांत से नर नारी हैं, नव ऊर्जा का संचार करो। माता कल्याण करो। फोटो - मित्र जॉयदीप पालThese blogs r fondest of my words, closest to my bosom, deeply enriched with the outcomes of an introspective sojourn.... The panoramic view of sinusoidal life and its adornments ....
Thursday, October 29, 2020
दीपक
मैं तम की कालिमा में तड़पता था, ह्रदय भर अंधकार पर बिगड़ता था। प्रकृति के नियमों को कोसता था, बनाया अन्धकार क्यों सोचता था ! थके हारे मैंने एक दीपक जलाया, तम से लड़ने का एक शस्त्र बनाया। देखते ही देखते, कुछ लोग जुड़ गए, मेरे गाँव में अँधेरे के पाँव थम गए।
Saturday, October 24, 2020
मछलियों की उम्र
Thursday, October 22, 2020
मेरा श्रम
हर्ष का श्रृंगार
Sunday, October 18, 2020
Tuesday, October 6, 2020
तुझे ढूंढते हैं हर नज़र
तुझे ढूंढते हैं हर नज़र
ऐ मेरे शहर ऐ मेरे शहर
वो जो छिप गया वो सुकून था
वो जो दिख रहा वो नसीब है।
मेरी हसरतों की न फ़िक्र कर,
अब सवाल उठते हैं वजूद पर।
तू जख्म की न कोई बात कर,
कोई कील ला ये सलीब है।
मेरा मैं बिखर के सब हुआ ,
क्या अजब हुआ, क्या गजब हुआ।
तुझे ढूंढते हैं हर नज़र
ऐ मेरे शहर ऐ मेरे शहर
क्षितिज
चलो यह बस्ते, यह बोझ फेंकते हैं,
दौड़ कर क्षितिज से कुछ पूछते हैं। आशा की तूलिका में रंग नए लपेटे, जीवन सूर्य को सुनहला कर देते हैं।सीख
सीख सको,सीखो वृक्षों से,
जड़ें बाँध कर उठ जाना। नदिया की धारा से सीखो, मीलों मील चले जाना। सीखो नभ के तारागण से, अनुशासन में बंध जीना। सीखो शिक्षक की कक्षा से, दो दो पीढ़ी को गढ़ जाना। शिक्षक दिवस की शुभकामनायें।उत्सर्ग
अब तिमिर को लांघ सूरज आ चुका है,
गहरी रात
देखो, आज की रात कितनी गहरी है,
औ' इसके साये थोड़े और भी संजीदा। हवा में पोशीदा सा एक कातिल है, देखो, सुबह किसको जगाती है ज़िंदा।पंख पूरे फैलाओ
पंख पूरे फैलाओ
जितना संभव हो, उतना ऊंचे जाओ नापो गगन को, विराट अम्बर को। दृष्टि भू पर बनाये रखना जो साक्षात् है उसे अपनाये रखना। सम्भावना की उड़ान में यथार्थ को बचाये रखना। पंख पूरे फैलाओसुबह अब आ चुकी है
हाँ। सुबह अब आ चुकी है।
धवल कांति गहरी निशा को देखो दूर करती जा रही है। किसी यज्ञ की पूर्णाहुति सा खिल रहे हैं पुष्प, हर्ष मानो कलरवों में हो रहा चहुओर है।उलझन
दुनिया मकड़ जाल ही है,
और इंसान एक मकड़ा। अपने हिस्से का बुनता, और बड़े जाल से जकड़ा। उलझन के धागे हैं, जालों में जाले हैं, बंधन है,जकड़न है,तृष्णा है तृप्ति है। मोह है,माया है, भ्रम की जो छाया है, जीने को,बढ़ने को,बढ़ के लपकने को, धन,बल और यश का जाल बनाया है।उम्मीद
आदमी के पाँव जब से थोड़े ठिठके हैं,
उस बगीचे में नए उम्मीद जन्मे हैं।
तितलियों की पीढ़ियों को पंख निकले हैं,
यह चूल्हा ज़िन्दगी का
यह चूल्हा ज़िन्दगी का,
सोच जलाये दिमाग के चूल्हे में, वक़्त, रोटियों से गोल पकाये हैं। अनुभव के अंगारे से जलती आंच, कभी मद्धम कभी तेज सुलगती है।क्या रहता, क्या खो जाता है?
सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...
-
Bol Bam - A journey of faith and surrender. (Sultanganj to Deoghar)- Shravan , 2011 It was raining heavily in Kolkata. The streets were ...
-
सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...
-
My breath was uneven,dry throat,shivering hands,sagging morale and i was a living corpse or a dying man. Alone all alone in the vastness of ...