Thursday, March 7, 2019

ईमान और कुफ्र

मैं जानता हूँ दुनिया के खेल ये सारे ,
न सफ़ेद , न स्याह कुछ रंग तुम्हारे।
ईमान क्यूँ तड़पे ,बेसुध वक़्त किनारे,
कुफ्र की बस्ती में है क्यूँ रोशन मीनारें।
काफिला ए जीस्त में यह शोर कैसा है,
रूह की बस्ती में कुछ जिबह हुआ है।
ज़िंदा लाशों की बारात चलती है ,
शहर में अब कभी न रात ढलती है।

क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...