Thursday, September 25, 2008

March onward and forward....

हुंकार भरो , संधान करो,
दिवाकर नया उदित होता है।
मन की वीथि में फैला तम,
बीता हुआ वार होता हैं।

तंद्रा के झोंके न बुरे हैं,
पृष्ठभूमि वह चेतन के हैं।
सोवो जितनी नींद बची हो,
जागृति का आधार वही हैं।

बिन प्राप्ति न मोक्ष मिलेगा,
बिन रात्रि न सूर्य उगेगा ।
बैठो किंतु मन में प्रण भर,
एक नया आह्वान चलेगा ।

मन पे विजय प्रथम सोपान ,
फ़िर सारा संसार मिलेगा ।
उद्भिद बढ़ कर एक व्यक्ति का,
वसुधा का कुल मान बनेगा ।




Monday, September 22, 2008

Incomplete ......

तेरे नाम के यह आंसू,
क्यूँ आज बह चले हैं।
बरसों के बाँध सारे,
क्यूँ आज ढह रहे हैं।

तेरी आँख इस तलक भी,
क्यूँ देखती है मुझको।
एक तीर सी बेचैनी,
क्यूँ चीरती है मुझको।

क्यूँ जाने को आते हैं,
सलोना सपन दिखाते हैं।
ख़ुद लम्बी नींद सो जाते,
हम रतजगे मनाते हैं।

Friday, September 12, 2008

Milestone n traveller ........

मत पूछ अब सवाल ,सूरज ढल रहा है।
बस देख मेरा हाल तूने क्या किया हैं।

मुहर्रम ही रहा अरसों से मेरे दिल का हाल।
ईद का कोई ख़याल जैसे बुझ गया हैं।

क्यूँ गुजरा ज़माना आज तुझ को याद आया।
कोई खुदा क्या ,आज तुझको कह गया हैं?

अब्र के मानिंद मय को पीता रहा हूँ।
तेरा तोह अब हर जिक्र जैसे धुल चुका हैं।

शाम दस्तक आज भी दे वक्त बतलाती हमें।
वरना जाने , देव कब का सो गया हैं।

क्या मुड कर देखते हो, आते जाते सोचते हो।
क्यूँ मील का पत्थर वहीँ पे रह गया हैं।



Bliss .....

यह रोग किसको मैं बताऊँ,
दफन आंसू कैसे दिखाऊं।
ला इलाजी पे हूँ हंसता,
हाल-ऐ-दिल कैसे बताऊँ।

एक नाम गोया क्यूँ लिया,
कुछ इश्क की तौहीन की।
एक आरजू में डूब कर ,
क्यूँ आवारगी हसीन की ।

साँस का मालिक भी कहता,
इश्क अनजानी दवा है।
रूह तक तो यह खुदा सा,
नाम में यह एक सजा है।

यह सजा आंखों की जीनत,
आशिक की है यह बंदगी।
ना दवा कोई असर की,
यह रोग सी है दिल्लगी।






Thursday, September 11, 2008

Catharsis.......

कब्र की सिल पे कुछ नही लिखना .....



अंधेरे के काजल में डूबी लिखावट,

कांपते हाथों में जो भी है आहट।

हलफ ले खुदाई का दिल से हूँ कहता,

जल गया आशियाँ, बच गई है सजावट।



कब्र की सिल ....



अरसो से डूबे को डुबोने चले हो,

सागर में पानी को खोने चले हो।

नज़र की हद को बढ़ा कर के देखो,

बिखरे ग़ज़ल को पिरोने चले हो।



कब्र की सिल ....



फेहरिस्तों की हद में न शायर समाया,

रूहानी होता है उसपे कुछ साया ।

पागल कहो, या अंधेरे का साथी,

तोहमत को भी उसने गले है लगाया।



कब्र की सिल....



सब कह के कुछ भी नही कह पाया,

बिना कुछ कहे भी बहुत है बताया।

अँधेरा बहुत हमने बरसों बटोरा,

हो सभी पे यहाँ अब रोशन सरमाया।



कब्र की सिल .....











Monday, September 1, 2008

Kosi ....

आकंठ नीर में डूबा बचपन,
साँसों की हो गिनता कम्पन।
विलग हुए माँ के अंचल से,
करता हो जब शैशव क्रंदन।

करुण बहुत हैं कई पुकार,
जाने कौन सुने चीत्कार।
रौरव करती आतंक मचाती,
कोसी की ताण्डव सी धार।

कौन मसीहा जो सुन पाये,
माता कैसे ममत्व बचाए.
फैला सभी दिशा में निर्मम,
हाहाकार जो विप्लव कहलाये।

भूख सिमट आंखों में अब,
जाने कौन दृश्य दिखलाये।
दर्द लिपट कर बाहों से अब,
अस्सहाय सा भाव जगाये ।

चाह नही थी शीश महल की,
कुटिया में थे दीप जलाए ।
धरती में कुछ बीज उगा कर,
बरसों थे हम जीते आए।

प्रभु के अनंत कुबेर को
जाने यह आह्लाद नही भाया.
कोसी में जलमग्न करने को,
जाने कौन प्रलय आया.

है चीख रहा लुंठित शैशव,
बिखर रहा कुंठित यौवन .
कण कण से आता अब ,
मरघट सा काल मई क्रंदन .

नयन युगल अब नभ को देखे,
कहीं से कोई दो रोट गिराए ।
आदिकाल के मानव सा फ़िर ,
दौड़ दौड़ हम उसको खाए।

जनक सुता की यह धरती,
मिथिला का यह उर्वर गौरव।
आज काल के गाल में जाता,
सदियों का सारा कुल वैभव।

मन में अब फैला आकाश ,
तन सिंचित , कोसी की धार।
समय काल का लंबा रास्ता ,
धुंधली आंखों में अन्धकार .

धरती अपनी अब छोड़ चलेंगे ,
जाने कब तक शिविर मिलेंगे।
माटी के कितने ही लाल अब,
शरणार्थी बन कहीं जियेंगे ।

क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...