Sunday, October 6, 2019

दशरथ मांझी

दुनिया में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे कोई दर्द न हुआ हो। दर्द भी दिमाग से रफ्ता रफ्ता कर सिमट जाता है, दर्द और उसका अनुभव पहले पहल सिनेमा के परदे जैसा दीखता है, फिर थोड़ा छोटा हो कर टी वी जैसा, जैसे जैसे वक़्त बीतता है वह फोटो के जैसा छोटा हो जाता है।  और एक समय आता है जब वह कंप्यूटर के फोल्डर में रखे फाइल जैसा हो जाता है, फुर्सत के पलों में हम उसे क्लिक कर याद करते हैं, अपने कलेजे को को कुछ समझाते हैं, और फिर कुछ समझ बाकी रख कर ही क्लोज का बटन दबा देते हैं। पर जो भी हो दर्द तो दर्द है, और दुनिया में दर्द के मायने भी सबके अलग अलग हैं। दर्द की प्रतिक्रया और प्रबंधन भी प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग है। कुछ दर्द में बिखरना चुन लेते हैं, कुछ दर्द में जिद पाल लेते हैं, कुछ सिसक लेते हैं , कुछ फरियादी बन जाते हैं, कुछ तो भाग जाते हैं जिंदगी से। जो भी हो हर दर्द की अपनी दास्ताँ है। 

दूसरे का दर्द समझना सरल नहीं है। सही ही कहा गया है - जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई। अब किसी तिफ़्ल ने अगर दुनिया का दर्द समझने की कोशिश की , तो उसे पहले तो खुद उस दर्द का अनुभव होना चाहिए। वरना ईमानदार समझ बनना मुश्किल होगी। अपनी मौत का दर्द बताने के लिए कोई इंसान वापिस नहीं आया, लेकिन उसके बाद यदि देखा जाए तो अपने प्रिय की आकस्मिक मृत्यु गहरा दर्द दे जाती है। जिंदगी और मौत कभी भी इंसान के बूते से बाहर रही, और ऐसा लगता है आगे भी रहेगी। लेकिन अपने प्रिय के मृत्यु के समक्ष संभावित वियोग में सबसे कष्टकारी होता है, जब व्यक्ति प्रयास न कर पाए। जब व्यक्ति अपनी संभावनाओं की सीमा तक उसको बचाने का प्रयास न कर पाए। यही संभावनाओं की सीमा तक अपने प्रिय को बचाने का प्रकल्प ही संतोष देता है।  लेकिन सभी उतने भाग्यशाली नहीं निकलते। मृत्यु और वियोग के समक्ष यह संतोष भी सबके हिस्से नहीं आता। चिता तो मुक्त शरीर की जलती है, लेकिन उसकी अग्नि में वियोगी अस्तित्व आजीवन जलता है। 

"दशरथ मांझी" को शायद ऐसे ही जलने का प्रारब्ध लिखा था। हथोड़े की एक एक मार के साथ वह शख्स जला होगा। उनकी प्रिय पात्र पत्नी "फाल्गुनी" कराह कर आँखों के सामने दम तोड़ गयी होगी। कितना छटपटाया होगा दशरथ का ह्रदय, जब स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में फाल्गुनी ने उनकी बाहों में अंतिम सांसें गिनी होंगी। हाथों से संघर्ष और सृजन को दिशा देने वाले दशरथ के ह्रदय पर उस समय क्या बीता होगा ? कैसा होगा वह किंकर्तव्यता का भाव ? कैसे बीते होंगे ग्लानि से विह्वल उनके वह पल। कितना चिढ़ाया होगा उन्हें गहलौर के उस पहाड़ी ने। कैसे उस पहाड़ी ने उन्हें बताया होगा कि प्रारब्ध और यम के कितने स्वरुप है ?

धनबाद की कोलियरी में काम करने वाले दशरथ ने गहलौर वापिस जा कर फाल्गुनी को बिहाया होगा , तब कभी कल्पना में भी नहीं सोचा होगा कि यह पहाड़ी एक दिन फाल्गुनी का काल बनेगी। मुसहर जाति के दशरथ मांझी के जीवन में फाल्गुनी देवी की मृत्यु एक ऐसा दर्द बन कर रह गयी, जो हमेशा सिनेमा के परदे की तरह ही चलती रही होगी।  उन्होंने प्रण किया कि वह उस पहाड़ी को धराशायी करेंगे और वहाँ से औरों के लिए जीवन का मार्ग प्रशस्त करेंगे। अपने दर्द को समाज के दर्द से जोड़ कर दूसरों को उस से बचाने का प्रयत्न शायद ही कुछ बिरले करते है। दशरथ मांझी बिरले ही तो थे।

गाँव-समाज के लोग हँसते थे। पागल हो गया दशरथ। लेकिन दशरथ के हथोड़ों ने पहाड़ी पर चोट शुरू कर दी थी। यह कोई एक दिन या कुछ दिनों का प्रतिशोध नहीं रहा होगा। यह तो एक अनंत श्रद्धांजलि का प्रकल्प रहा होगा। हर हथोड़े के पीछे समानुभूति और भवितव्यता में किसी और का दर्द रहा होगा। दशरथ की आत्मा कितनी पवित्र और दृढ रही होगी, यह कल्पना से परे है। वह मार्ग बना रहा था, अपने दर्द भुला रहा था, वह चट्टान से लड़ रहा था, साथी समाज हंस रहा था। जब आप आत्मा, प्रेम और तिरोहण की इस ऊंचाई पर हों, तो लोक - लाज, हर्ष - विषाद कोई मायने नहीं रखते। दशरथ वहीँ थे, बढे चले जा रहे थे। प्रतिदिन थोड़ी दूरी कम करते, ऐसा मानो पहाड़ी के उस पार फाल्गुनी उनकी प्रतीक्षा में हों। 

जब तक गाँव के लोग उनकी बात समझते, वह काफी आगे बढ़ गए थे। अब लोग उनकी मदद कर रहे थे , कोई खाना दे जाता , कोई पानी तो कोई हथोड़ा। कैसे एक ईमानदार पहल, एक निर्लेप - निस्वार्थ पहल स्वतः जन चेतना का रूप लेती है। 22 वर्षों की अथक तपस्या से दशरथ मांझी ने पहाड़ी से रास्ता निकाल दिया, कैसे छन कर आयी होगी रौशनी उस दिन।  कैसे उम्मीदों का झरोखा बन कर तैयार हुआ होगा 22 सालों की तपस्या से। हाँ उन्होंने फाल्गुनी को कितना याद किया होगा , हर दिन , महीने, साल , हर पल। शायद यह प्रेम और समर्पण की पराकाष्ठा है। मानव इतिहास में यह 110 मीटर लम्बा, 8 मीटर गहरा और 9 मीटर चौड़ा मार्ग सभ्यताओं की जीवंतता का पर्याय बना रहेगा। यह रास्ता प्रेम, समर्पण, वियोग, दर्द को सृजन की दिशा देने वाला रास्ता होगा , जो 55 किलोमीटर की दूरी को 15 किलोमीटर कर देता है , कि फिर कोई फाल्गुनी इलाज़ के बिना अपने दशरथ से बिछड़ न जाए। 

दशरथ मांझी बाबा 2007 में गुजर गए। बाद में सरकार ने सुध ली और सुन्दर सड़क बनवा दी है।  उनका समाधि स्थल भी बना है। एक फिल्म भी बनी थी उन पर। आज कैप्टन उमाशंकर राय सर ने गहलौर से यह तस्वीर भेजी तो ह्रदय में कुछ लिखने की बेकली हुई। मन ने कहा कि क्या बीता होगा दशरथ मांझी पर, क्या सोचा होगा उन्होंने , कैसे 22 साल पत्थरों से लड़े होंगे। कैप्टन उमाशंकर राय सर ने तो उन्हें वहीँ सैल्यूट कर लिया, मेरी किस्मत में यह नहीं था। फिर सोचा उनके सम्मान में कुछ लिख तो सकता ही हूँ, बस लिख दिया। 




1 comment:

Unknown said...

लेख की शुरुआत बहुत प्रभावी,एक सांस में पढ़ने लायक। अद्भुत👌
गौरीशंकर शर्मा

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