Saturday, May 17, 2008

the penultimate desire.......

चाहत के दो फूल खिला कर ,
दर्द नशेमन मिलता है।
गुंचा एक प्यार का देखो ,
कांटो का गुलशन देता है।

हाय जहाँ कुछ फूल कभी थे,
आज बिछे अंगारे हैं।
जहाँ जिगर का लहू बहा था,
आज सिसकती आहें हैं।

साँसों में जो एक कयास था,
उसको रोज दफन करता हूँ।
क्यों मुझको जीने कहते हो,
बरसों से जीता आया हूँ।

अब तौ कुछ अरमा हैं ऐसे,
सागर की लहरें हो जैसे ।
पल को बनती ,पल को बिखरती,
साहिल से मिलना हो ऐसे.

1 comment:

Unknown said...

kaha se dhundte ho aise sabd .dard hii dard or kuch nahi hae in sabdo mae.nice composition.

क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...