Monday, September 1, 2008

Kosi ....

आकंठ नीर में डूबा बचपन,
साँसों की हो गिनता कम्पन।
विलग हुए माँ के अंचल से,
करता हो जब शैशव क्रंदन।

करुण बहुत हैं कई पुकार,
जाने कौन सुने चीत्कार।
रौरव करती आतंक मचाती,
कोसी की ताण्डव सी धार।

कौन मसीहा जो सुन पाये,
माता कैसे ममत्व बचाए.
फैला सभी दिशा में निर्मम,
हाहाकार जो विप्लव कहलाये।

भूख सिमट आंखों में अब,
जाने कौन दृश्य दिखलाये।
दर्द लिपट कर बाहों से अब,
अस्सहाय सा भाव जगाये ।

चाह नही थी शीश महल की,
कुटिया में थे दीप जलाए ।
धरती में कुछ बीज उगा कर,
बरसों थे हम जीते आए।

प्रभु के अनंत कुबेर को
जाने यह आह्लाद नही भाया.
कोसी में जलमग्न करने को,
जाने कौन प्रलय आया.

है चीख रहा लुंठित शैशव,
बिखर रहा कुंठित यौवन .
कण कण से आता अब ,
मरघट सा काल मई क्रंदन .

नयन युगल अब नभ को देखे,
कहीं से कोई दो रोट गिराए ।
आदिकाल के मानव सा फ़िर ,
दौड़ दौड़ हम उसको खाए।

जनक सुता की यह धरती,
मिथिला का यह उर्वर गौरव।
आज काल के गाल में जाता,
सदियों का सारा कुल वैभव।

मन में अब फैला आकाश ,
तन सिंचित , कोसी की धार।
समय काल का लंबा रास्ता ,
धुंधली आंखों में अन्धकार .

धरती अपनी अब छोड़ चलेंगे ,
जाने कब तक शिविर मिलेंगे।
माटी के कितने ही लाल अब,
शरणार्थी बन कहीं जियेंगे ।

4 comments:

Anonymous said...

really nice

Anonymous said...

hridaysparshi.......

Anonymous said...

युवा हो। क्या कविता कर रहे हो। जाओ वहाँ और उनके लिए कुछ करो। तुम्हें इतना तो सक्षम बनाया ही है।

Anonymous said...

Waah Kaviraaj, Koti Koti Pranaam

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