Friday, September 8, 2023

वह शून्य

एकटक देख रहा था मैं शून्य में। अजान, अचीन्हे, अनभिज्ञ दृश्य मानस पटल पर बन रहे थे। दृष्टि कुछ और देख रही थी और मष्तिष्क कुछ और। निर्णय कठिन हो रहा था। लोक और परलोक, माया और राम, धर्म और अधर्म, राग और विराग, सत्य और बंधन। इन सब के बीच खड़ा वह विराट शून्य, जिसमें सब समाहित है, जहां से समस्त सृजन है, जहां विहंगम विध्वंस भी।
शून्य से दूरी नापती दृष्टि मष्तिष्क को सब बता रही थी। सारे दोलन, सारे आंदोलन, चेतना, प्रयास, सफलता, विफलता सब सामने ही तो हैं। एक कथा चल रही है शून्य से शून्य की। मन मष्तिष्क के भी शुक्ल और कृष्ण पक्ष हैं, जीवन है मृत्यु है, और कहीं बीच में एक शून्य है, किसी आँख मिचौनी सा। जहां न दिन है न रात्रि, न शोक न हर्ष। वह शून्य !



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