Saturday, June 13, 2020

दरख्तों की जड़ें

एक रात ठंडी, जागती सी बीत जाती है, धुंधलके सुबहों के बीते न बिताये जाते। उसने चट्टान बन तूफानों से बस्ती बचाई, उसे अपनी दरख्तों की जड़ें अब तोड़ती हैं।


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क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...