Tuesday, July 22, 2008

The Messiah...........

मसीहा....
जिस्त-ऐ-मरहम अब नही,
रूह-ऐ-खुदाई खोजता हूँ।
नाम तेरा जुबान पे रख ,
एक रात लम्बी जागता हूँ।
मसीहा....
सब छोड़ तुझको चाहता हूँ,
ख़ाक सा मैं जा बना हूँ।
अब कुछ नही बाकी है मुझमे,
बस छाँव तेरी चाहता हूँ।
मसीहा....
दर्द को जाहिर न करता,
खुशनुमा सपने न तकता।
दस्त का सूखा शज़र मैं,
बस तेरी ही राह तकता।

1 comment:

Anonymous said...

waah waah.
khuda ki bandgi bhi subhanallah

क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...