Wednesday, July 30, 2008

The renaissance ????

मेरी गुर्बतों के अब्र,
राशिद तेरे अल्फाज़।
तरन्नुम की कशिश,
सजते हुए से साज़।

दीगर वोह माहताब,
चश्म का वोह आब।
कुछ दीवाने से किस्से,
कुछ चाहत के आदाब।

हरजाई रही जो रात,
कह गई जिगर की बात।
साँसों के रस्ते हौले से,
कुछ सरगोशी की सौगात।

गुलशन का मौसम बदला,
उगते से दीखते अब पात।
जिगर के रौशन टुकडो में
भी बनती सी अब कोई बात।

होठों का शजर वोह देखो,
फ़िर से हो रहा हरा है।
मुस्कान का रमल भी देखो,
फ़िर चल सा पडा है।

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