Friday, August 8, 2008

Obeisance to the Odyssey of life.....

रेत सी जिंदगी हो गोया , कसता चला गया फ़िर भी।
मुट्ठी खोली तो देखा, बच रही लकीरें हासिल सी।

वाकयों के नश्तर से ,आयतें दिल की लिख डाली।
मील के हर पत्थर से , हाल पूछा बन सवाली।

क्यूँ शाम अब भी खोयी ,क्यूँ राहतों की सेज खाली।
देखो समंदर गा रहा, कब से अकेला ही कव्वाली।

अब अब्र बरसेगा यहाँ भी,रोशन भी होंगे ये दयार।
सूरज इबादत का निकलता,कह रही कुछ है बयार।

No comments:

क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...