Thursday, August 21, 2008

The past perfect....

पता नही क्या राज है , गुल-ऐ-गुलजार में गुम हो रहे,
उस दीदा-ऐ-रुखसार में, अब चश्म मद्धम हो रहे।

हकीक़तों से सामना होता रहा अक्सर मेरा,
क्यूँ ख्वाब की उस बानगी में फ़िर भी हम खोते रहे।

क्यूँ वक्त की पेशानियों से, कोई नाम मिटता ही नही,
क्यूँ इस तलक भी ख्वाब के, पैमाने कभी छलके नही।

क्यूँ आग बन कर रात आई,मुझसे मिलने को सही,
क्यूँ करवटों की आहटों से , आह निकली ही नही।

कारवाँ अच्छा बहुत था, पाँव ही थे थक रहे,
अब क्या कहें, चुप चाप बैठे,देख ख़ुद को हैं रहे।

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