Tuesday, July 7, 2020

बिंदु और सागर

कभी कभी बरस लिया करो !
प्रेम, अभिलाषा, लिप्सा, उन्माद, आवेग, कुंठा, उत्कंठा
सभी को समय समय पर बहने दिया करो।
तुम उम्मीदों, अपेक्षाओं के श्मशान या कारागृह तो नहीं,
जहाँ से किसी भाव की मुक्ति संभव ही नहीं !
टूटने दो धैर्य के बांधों को कभी, मिलने दो बिंदु को सागर से,
उसकी भी तपस्या, पूर्णता को तरसती है।
स्वागत करो धरती पर गिरती हर बूँद का, उसकी मुक्ति का,
उसे भी अधिकार है नव यात्रा का, नव जीवन का।
कभी कभी बरस लिया करो !

PC- Dr Nitish Priyadarshi


No comments:

क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...