Saturday, July 15, 2023

किंकर्तव्यविमूढ!

किंकर्तव्यविमूढ!

उचित है रूकना, थोडा ठिठकना,
देखना, समझना, साहस बटोरना।
किंतु कब तक!
मोह के जालों के बंधन में उलझा,
उलझन के दलदल में गहरे उतरता।
सोचो!
कर्म और फल क्या तुमने बनाए,
सारे जीवन फल वांछित ही पाए?
बढ़ो!
अपनी जगह किसी दूसरे को देखो,
ठिठके भ्रमित को तुम क्या कहोगे !
बढना ही जीवन है, काल से सीखो
यश का समंदर है, उतरो या डूबो।



No comments:

क्या रहता, क्या खो जाता है?

सागर सदृश जीवन में उत्तुंग तरंगें स्मृतियों की जब कूल तोड़ कर बढ़ती हों कुछ बह जाता, कुछ रह जाता है। कितने मेरे थे, कितनों का मैं, पर काल बिंद...